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________________ निश्चयपरमावश्यक अधिकार ण वसो अवसो अवसस्स कम्म वावस्सयं त्ति बोद्धव्वा । जुत्ति त्ति उवाअं त्ति य णिरवयवो होदि णिज्जुत्ती । । १४२ ।। न वशो अवशस्य कर्म वाऽवश्यकमिति बोद्धव्यम् । युक्तिरिति उपाय इति च निरवयवो भवति निरुक्तिः । । १४२ । । (रोला ) जो सत् चित् आनन्दमयी निज शुद्धातम में । रत होने से अरे स्ववशताजन्य कर्म हो । वह आवश्यक परम करम ही मुक्तिमार्ग है। ३६५ उससे ही मैं निर्विकल्प सुख को पाता हूँ।। २३८|| स्ववशजनित अर्थात् अपने आत्मा के आश्रय से उत्पन्न आवश्यक कर्मरूप यह साक्षात् धर्म, सच्चिदानन्द की मूर्ति आत्मा में निश्चित ही अतिशयरूप से होता है। कर्मों के क्षय करने में कुशल यह धर्म, निवृत्तिरूप एक मार्ग है, मुक्ति का एकमात्र मार्ग है। उससे ही मैं शीघ्र ही अद्भुत निर्विकल्प सुख को प्राप्त होता हूँ । इसप्रकार इस कलश में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में यह कहा गया है कि सच्चिदानन्दमयी निज शुद्धात्मा के ज्ञान-दर्शनपूर्वक होनेवाली आत्मलीनता ही निश्चय परम आवश्यक कर्म है, साक्षात् धर्म है; उससे ही अनन्त सुख की प्राप्ति होती है । निज शुद्धात्मा के आश्रय से अर्थात् निज आत्मा में अपनापन स्थापित करने से, उसे ही निजरूप जानने से और उसी में एकाग्र हो जाने से, जम जाने से, रम जाने से उत्पन्न होनेवाले निश्चय सम्यग्दर्शन, निश्चय सम्यग्ज्ञान और निश्चय सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय ही मुक्ति का एकमात्र साक्षात् मार्ग है, साक्षात् मुक्ति का मार्ग है। इसके अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है। अतः सभी आत्मार्थियों का एकमात्र कर्त्तव्य शुद्धात्मा की उपलब्धि ही है, उसे प्राप्त करने का प्रयास करना ही है || २३८|| निश्चय परमावश्यकाधिकार की पहली गाथा में निश्चय परम आवश्यक कर्म की सामान्य चर्चा करने के उपरान्त अब इस दूसरी गाथा में उसका व्युत्पत्तिजन्य अर्थ बताते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार हैह्र ( हरिगीत ) जो किसी के वश नहीं वह अवश उसके कर्म को । कहे आवश्यक वही है युक्ति मुक्ति उपाय की || १४२ ।। जो अन्य के वश नहीं है, वह अवश है और अवश का कर्म आवश्यक है ह्र ऐसा
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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