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________________ ३६४ नियमसार तथाहित (मंदाक्रांता) आत्मन्युच्चैर्भवति नियतं सच्चिदानन्दमूर्ती धर्म: साक्षात् स्ववशजनितावश्यकर्मात्मकोऽयम् । सोऽयं कर्मक्षयकरपटुर्निर्वृतेरेकमार्ग: तेनैवाहं किमपि तरसा यामि शं निर्विकल्पम् ।।२३८।। अविचल जोत निष्कंप रत्नदीप सम, विलसत सहजानन्द मय जानिये।। नित्य आनंद के प्रशमरस में मगन, शुद्ध उपयोग का महत्त्व पहिचानिये। नित्य ज्ञानतत्त्व में विलीन यह आतमा, स्वयं धर्मरूप परिणत पहिचानिये ||६६|| इसप्रकार शुद्धोपयोग को प्राप्त करके यह आत्मा स्वयं धर्मरूप परिणमित होता हुआ नित्यानंद के प्रसार से सरस आत्मतत्त्व में लीन होकर, अत्यन्त अविचलता के कारण दैदीप्यमान ज्योतिर्मय और सहजरूप से विलसित स्वभाव से प्रकाशित रत्नदीपक की भाँति निष्कंप प्रकाशमय शोभा को प्राप्त करता है। __ घी या तेल से जलनेवाले दीपक कीलों वायु के संचरण से कांपती रहती है और यदि वायु थोड़ी-बहुत भी तेज चले तो बुझ जाती है; परन्तु रत्नदीपक में न तो घी या तेल की जरूरत है और न वह वायु के प्रचंड वेग से काँपता ही है। जब वह कांपता भी नहीं तो फिर बुझने का प्रश्न नहीं उठता। यही कारण है कि यहाँज्ञानानन्दज्योति की उपमा रत्नदीपक से दी गई है। क्षायोपशमिक ज्ञान और आनन्द; तेल के दीपक के समान अस्थिर रहते हैं, अनित्य होते हैं और क्षणभंगुर होते हैं; किन्तु क्षायिकज्ञान और क्षायिक आनन्द; रत्नदीपक के समान अकंप चिरस्थाई होते हैं। शुद्धोपयोग के प्रसाद से होनेवाले अतीन्द्रियज्ञान और अतीन्द्रियसुख अकंप चिरस्थाई होने से परम उपादेय हैं। इसप्रकार इस कलश में निष्कम्प रत्नदीपक के उदाहरण के माध्यम से यही कहा गया है कि अपने त्रिकाली ध्रव भगवान आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होनेवाला शद्धोपयोग ही निश्चय परम आवश्यक है।।६६।। इसी बात को स्पष्ट करते हुए टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव एक छन्द स्वयं लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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