SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 366
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नियमसार अवशस्य परमजिनयोगीश्वरस्य परमावश्यककर्मावश्यं भवतीत्यत्रोक्तम् । यो हि योगी स्वात्मपरिग्रहादन्येषां पदार्थानां वशं न गतः, अत एव अवश इत्युक्तः, अवशस्य तस्य परजिनयोगीश्वरस्य निश्चयधर्मध्यानात्मकपरमावश्यककर्मावश्यं भवतीति बोद्धव्यम् । निरवयवस्योपायो युक्तिः। अवयवः काय:, अस्याभावात् अवयवाभाव: । अवशः परद्रव्याणां निरवयवो भवतीति निरुक्तिः व्युत्पत्तिश्चेति । ( मंदाक्रांता ) ३६६ योगी कश्चित्स्वहितनिरतः शुद्धजीवास्तिकायाद् अन्येषां यो न वश इति या संस्थिति: सा निरुक्तिः । प्रहतदुरितध्वान्तपुंजस्य नित्यं तस्मादस्य स्फूर्जज्ज्योति:स्फुटितसहजावस्थयाऽमूर्तता स्यात् । । २३९ ।। जानना चाहिए। यह अशरीरी होने की युक्ति है, उपाय है; इससे जीव अशरीरी होता है ह्र ऐसी निरुक्ति है । इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं “यहाँ अवश अर्थात् स्ववश-स्वाधीन परमजिन योगीश्वर को परम आवश्यक कर्म अवश्य होता है ह्न ऐसा कहा है। अपने आत्मा को चारों ओर से ग्रहण करनेवाले जिस आत्मा को स्वात्मपरिग्रह के अतिरिक्त अन्य किसी परपदार्थ के वश नहीं होने से अवश कहा जाता है; उस अवश परमजिनयोगीश्वर को निश्चय धर्मध्यान रूप परमावश्यक कर्म अवश्य होता है ह्र ऐसा जानना । वह परम आवश्यक कर्म निरवयवपने (मुक्त होने) का उपाय है, युक्ति है । अवयव अर्थात् काय (शरीर) । काय का अभाव ही अवयव का अभाव है, निरवयवपना है। तात्पर्य यह है कि परद्रव्यों के अवश जीव निरवयव है, अकाय है ह्र इसप्रकार निरुक्ति है, व्युत्पत्ति है । " इसप्रकार इस गाथा और उसकी टीका में यह कहा गया है कि किसी अन्य के वश नहीं अवश है और अवश का भाव आवश्यक है, परम आवश्यक है, निश्चय परम आवश्यक है। यह निश्चय परम आवश्यक ही साक्षात् मुक्ति का मार्ग है, अशरीरी होने का उपाय है। अपने त्रिकाली ध्रुव आत्मा में अपनापन स्थापित करना, उसे ही निजरूप जानना - मानना और उसमें लीन हो जाना ही स्ववशता है। इस स्ववशता को ही यहाँ परम आवश्यक कर्म कहा गया है। इसके विरुद्ध परपदार्थों और उनके आश्रय से उत्पन्न होनेवाले मोहराग-द्वेषरूप परिणामों में अपनापन ही परवशता है । यह परवशता आत्मा का कर्त्तव्य नहीं है, आत्मा के लिए आवश्यक कर्म नहीं है; क्योंकि वह अवस्था बंधरूप है, बंध की कारण है ।। १४२ ।।
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy