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________________ २४० नियमसार परस्य साक्षाच्छुद्धोपयोगाभिमुखस्य मम परमागममकरंदनिष्यन्दिमुखपद्मप्रभस्य शुद्धोपयोगेपि च स परमात्मा सनातनस्वभावत्वात्तिष्ठति । तथा चोक्तमेकत्वसप्ततौह्न (अनुष्टुभ् ) तदेकं परमं ज्ञानं तदेकं शुचि दर्शनम् । चारित्रं च तदेकं स्यात् तदेकं निर्मलं तपः ।।५१।। नमस्यं च तदेवैकं तदेवैकं च मंगलम् । उत्तमं च तदेवैकं तदेव शरणं सताम् ।।५२।। आचारश्च तदेवैकं तदैवावश्यकक्रिया। स्वाध्यायस्तु तदेवैकमप्रमत्तस्य योगिनः ।।५३। शुद्धोपयोग के सन्मुख जो मैं, जिसके मुख से परमागमरूपी मकरंद सदा झरता है ह ऐसे पद्मप्रभ (पद्मप्रभमलधारिदेव) के शुद्धोपयोग में भी वह परमात्मा विद्यमान है; क्योंकि वह परमात्मा सनातन स्वभाववाला है।" यह गाथा और उसकी टीका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इनमें कहा गया है कि सन्तों को तो सर्वत्र एक आत्मा ही उपादेय है। आचार्य कुन्दकुन्द और टीकाकार पद्मप्रभमलधारिदेव उत्तम पुरुष में बात करके ऐसा कह रहे हैं कि मुझमें और मेरे दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप में; तथा प्रत्याख्यान और शद्धोपयोग में एकमात्र आत्मा ही है, उसी की मुख्यता है। यद्यपि पद्मप्रभमलधारिदेव का यह कथन कि हमारे मुख से परमागम का मकरंद झरता कछ गर्वोक्ति जैसा लगता है; तथापि यह उनका आत्मविश्वास ही है; जो उनके आध्यात्मिक रस को व्यक्त करता है।।१००|| ___ इसके बाद टीकाकार मुनिराज 'तथा चोक्तमेकत्वसप्ततौ ह्न तथा एकत्वसप्तति में भी कहा है' ह ऐसा लिखकर तीन छन्द प्रस्तुत करते हैं; जिनका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (दोहा) वही एक मेरे लिए परमज्ञान चारित्र। पावन दर्शन तप वही निर्मल परम पवित्र ||५१|| सत्पुरुषों के लिए वह एकमात्र संयोग। मंगल उत्तम शरण अर नमस्कार के योग्य ||५२|| योगी जो अप्रमत्त हैं उन्हें एक आचार| स्वाध्याय भी है वही आवश्यक व्यवहार||५३|| १. पद्मनन्दिपंचविंशतिका, एकत्वसप्तति अधिकार, श्लोक ३९, २. वही, ४०, ३. वही, ४१
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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