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________________ निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार २३९ आत्मा खलु मम ज्ञाने आत्मा मे दर्शने चरित्रे च । आत्मा प्रत्याख्याने आत्मा मे संवरे योगे ।। १०० ।। अत्र सर्वत्रात्मोपादेय इत्युक्तः । अनाद्यनिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्धसहजसौख्यात्मा ह्यात्मा। स खलु सहजशुद्धज्ञानचेतनापरिणतस्य मम सम्यग्ज्ञाने च, स च प्रांचितपरमपंचमगतिप्राप्तिहेतुभूतपंचमभावभावनापरिणतस्य मम सहजसम्यग्दर्शनविषये च, साक्षान्निर्वाणप्राप्त्युयायस्वस्वरूपाविचलस्थितिरूपसहजपरमचारित्रपरिणतेर्मम सहजचारित्रेऽपि स परमात्मा सदा संनिहितश्च, स चात्मा सदासन्नस्थः शुभाशुभपुण्यपापसुखदुःखानां षण्णां सकलसंन्यासात्मकनिश्चयप्रत्याख्याने च मम भेदविज्ञानिनः परद्रव्यपराङ्मुखस्य पंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहस्य, मम सहजवैराग्यप्रासादशिखरशिखामणेः स्वरूपगुप्तस्य पापाटवीपावकस्य शुभाशुभसंवरयोश्च, अशुभोपयोगपराङ्मुखस्य शुभोपयोगेऽप्युदासीनअब आगामी गाथा में यह कहते हैं कि सर्वत्र एकमात्र आत्मा ही उपादेय है । गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र ( हरिगीत ) मम ज्ञान में है आतमा दर्शन चरित में आतमा । अर योग संवर और प्रत्याख्यान में भी आतमा ||१००|| वस्तुत: मेरे ज्ञान में आत्मा है, दर्शन में आत्मा तथा चारित्र में आत्मा है, मेरे प्रत्याख्यान में आत्मा है, मेरे संवर में आत्मा है और मेरे योग (शुद्धोपयोग) में आत्मा है। इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "इस गाथा में 'सर्वत्र आत्मा उपादेय है' ह्र ऐसा कहा गया है। वस्तुत: आत्मा अनादिअनंत, अमूर्त, अतीन्द्रियस्वभाववाला, शुद्ध, सहज सौख्यात्मक है; सहजचेतनारूप से परिणमित मुझमें और मेरे सम्यग्ज्ञान में वह आत्मा है । पूजितपरमपंचमगति की प्राप्ति के हेतुभूत पंचमभाव (परमपारिणामिकभाव ) की भावनारूप से परिणमित मुझमें और मेरे सहज सम्यग्दर्शन में वह आत्मा है। साक्षात् निर्वाण प्राप्ति के उपायभूत निजस्वरूप में अविचल स्थितिरूप सहज परमचारित्र परिणतिवाले मुझमें और मेरे सहज चारित्र में भी वह परमात्मा सदा सन्निहित है । सदा सन्निहित शुभ-अशुभ, पुण्य-पाप और सुख-दुःख ह्र इन छह भावों से संपूर्ण संन्यासात्मक, परद्रव्य से परांगमुख, पंचेन्द्रिय विस्तार से रहित, भेदविज्ञानी और देहमात्र परिग्रहवाले मुझमें और मेरे निश्चय प्रत्याख्यान में वह आत्मा सदा निकट ही विद्यमान है । सहज वैराग्य के महल के शिखर का शिरोमणि, स्वरूपगुप्त और पापरूपी अटवी को जलाने के लिए अग्नि समान जो मैं; उसमें और मेरे शुभाशुभ संवर में वह आत्मा है । अशुभोपयोग से परांगमुख और शुभोपयोग के प्रति उदासीन और साक्षात्
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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