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________________ निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार २४१ तथा हित (मालिनी) मम सहजसुदृष्टौ शुद्धबोधे चरित्रे सुकृतदुरितकर्मद्वन्दसंन्यासकाले। भवति स परमात्मा संवरे शुद्धयोगे नच न च भुवि कोऽप्यन्योस्ति मुक्त्यै पदार्थः।।१३५।। वही (चैतन्यज्योति) एक परमज्ञान है, वही एक पवित्र दर्शन है, वही एक चारित्र है तथा वही एक निर्मल तप है। ___ सत्पुरुषों को वही एक नमस्कार करने योग्य है, वही एक मंगल है, वही एक उत्तम है तथा वही एक शरण है। अप्रमत्त योगियों के लिए वही एक आचार, वही एक आवश्यक क्रिया है और वही एक स्वाध्याय है। उक्त तीनों छन्दों में यह तो कहा ही गया है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक् तप ह ये सब एक आत्मा ही हैं; साथ में यह भी कहा गया है कि नमस्कार करने योग्य भी एक आत्मा ही है; मंगल, उत्तम और शरण भी एक आत्मा ही है; षट् आवश्यक, आचार और स्वाध्याय भी एक आत्मा ही है। यह सम्पूर्ण कथन शुद्ध निश्चयनय का कथन है। इसे इसी दष्टि से देखा जाना चाहिए ।।५१-५३|| - इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव दो छन्द स्वयं लिखते हैं, जिनमें पहले छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र (हरिगीत ) इक आतमा ही बस रहा मम सहज दर्शन-ज्ञान में। संवर में शुध उपयोग में चारित्र प्रत्याख्यान में। दुष्कर्म अरसत्कर्म ह इन सब कर्म के संन्यास में। मुक्ति पाने के लिए अन कोई साधन है नहीं।।१३५।। मेरे सहज सम्यग्दर्शन में, शुद्ध ज्ञान में, चारित्र में, सुकृत और दुष्कृत रूपी कर्मद्वन्द्व के संन्यास काल में अर्थात् प्रत्याख्यान में, संवर में और शुद्ध योग अर्थात् शुद्धोपयोग में एकमात्र वह परमात्मा ही है; क्योंकि ये सब एक निज शुद्धात्मा के आश्रय से ही प्रगट होते हैं। मुक्ति की प्राप्ति के लिए जगत में अपने आत्मा के अतिरिक्त अन्य कोई पदार्थ नहीं है, नहीं है। इस छन्द में भी मूल गाथा, उसकी टीका और उद्धृत छन्दों में जो बात कही गई है,
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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