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________________ १४४ नियमसार दळूण इत्थिरूवं वांछाभावं णियत्तदे तासु। मेहुणसण्णविवज्जियपरिणामो अहव तुरीयवदं॥५९।। दृष्ट्वा स्त्रीरूपं वांच्छाभावं निवर्तते तासु। मैथुनसंज्ञाविवर्जितपरिणामोऽथवा तुरीयव्रतम् ।।५९।। चतुर्थव्रतस्वरूपकथनमिदम् । कमनीयकामिनीनां तन्मनोहराङ्गनिरीक्षणद्वारेण समुपजनितकौतूहलचित्तवांछापरित्यागेन, अथवा पुंवेदोदयाभिधाननोकषायतीव्रोदयेन संजातमैथुनसंज्ञापरित्यागलक्षणशुभपरिणामेन च ब्रह्मचर्यव्रतं भवति इति। इस कलश में यही कहा गया है कि जिसप्रकार सत्यव्रत से इस लोक में यश और परलोक में स्वर्ग की प्राप्ति होती है। उसीप्रकार इस अचौर्यव्रत से इस भव में रत्नों (धन) का संचय होता है और अगले भव में स्वर्ग की प्राप्ति होती है। साथ में अचौर्यव्रत को परम्परा मुक्ति का कारण भी बताया गया है। भले ही अहिंसा व सत्यव्रत के फल को परम्परा से मुक्ति का कारण न कहा हो; पर स्थिति तो यही है कि ये सभी व्रत परम्परा मुक्ति के कारण कहे जाते हैं; क्योंकि इन व्रतों के साथ मुनिराजों के तीन कषाय के अभावरूप शुद्धपरिणति होती है। मुक्ति का कारण तो वह शद्ध परिणति है; पर उसके संयोग से इन व्रतों को भी परम्परा से मुक्ति का कारण कह देते हैं।।७८|| विगत तीन गाथाओं में क्रमश: अहिंसा, सत्य और अचौर्य ह इन तीन व्रतों की चर्चा की गई है। अब इस गाथा में ब्रह्मचर्य नामक चौथे व्रत की चर्चा करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र । (हरिगीत) देख रमणी रूप वांछा भाव से निवृत्त हो। या रहित मैथुनभाव से है वही चौथा व्रत अहो।।५९|| महिलाओं का रूप देखकर उनके लक्ष्य से होनेवाले वांछारूप भावों से निवृत्ति अथवा मैथुनसंज्ञा से रहित परिणामों को ब्रह्मचर्य नामक चौथा व्रत कहते हैं। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न “यह चौथे व्रत के स्वरूप का कथन है। कमनीय कामनियों (सुन्दर महिलाओं) के मनोहर अंगों को देखकर चित्त में उत्पन्न होनेवाले वांछा रूप कौतुहल के त्याग से अथवा पुरुषवेद के उदयरूपनो कषाय के तीव्र उदय के कारण होनेवाली मैथन संज्ञा के परित्यागरूप शुभ परिणाम से ब्रह्मचर्य नामक चौथा व्रत होता है।"
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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