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________________ व्यवहारचारित्राधिकार १४३ ग्रामे वा नगरे वाऽरण्ये वा प्रेक्षयित्वा परमर्थम्। यो मुंचति ग्रहणभावं तृतीयव्रतं भवति तस्यैव ।।५८।। तृतीयव्रतस्वरूपाख्यानमेतत् । वृत्यावृत्तो ग्रामः तस्मिन् वा चतुर्भिर्गोपुरैर्भासुरं नगरं तस्मिन् वा मनुष्यसंचारशून्यं वनस्पतिजातवल्लीगुल्मप्रभृतिभिः परिपूर्णमरण्यं तस्मिन् वा परेण विसृष्टं निहितं पतितं वा विस्मृतं वा परद्रव्यं दृष्ट्वा स्वीकारपरिणामं यः परित्यजति, तस्य हि तृतीयव्रतं भवति इति। (आर्या) आकर्षति रत्नानां संचयमुच्चैरचौर्य्यमेतदिह । स्वर्गस्त्रीसुखमूलं क्रमेण मुक्त्यंगनायाश्च ।।७८।। ग्राम में, नगर में अथवा वन में पराई वस्तु को देखकर जो साधु उसे ग्रहण करने के भाव को छोड़ता है, उसी को तीसरा अचौर्य महाव्रत होता है। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न “यह तीसरे व्रत के स्वरूप का कथन है। जिसके चारों ओर बाढ हो, वह ग्राम है और जो चार दरवाजों से सुशोभित हो, वह नगर है। जो मनुष्यों के संचार से रहित हो, वनस्पति समूह, बेलों और वृक्षों के झुंड आदि से भरा हो; वह अरण्य है। इसप्रकार के ग्राम, नगर या अरण्य (वन) में अन्य से छोड़ी हुई, रखी हुई, गिरी हुई या भूली हुई परवस्तु को देखकर उसको ग्रहण करने के परिणामों को जो छोड़ता है; उसको तीसरा अचौर्यव्रत होता है।" इस गाथा में अचौर्यव्रत का स्वरूप स्पष्ट करते हुए ग्राम, नगर और अरण्य (वन) को परिभाषित किया गया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव के काल में सुरक्षा की दृष्टि से प्रत्येक ग्राम के चारों ओर परकोटा होता होगा और बड़े ग्रामों अर्थात् नगरों में परकोटे के साथ-साथ चारों ओर चार दरवाजे भी होते होंगे।।५८।। इसके बाद पद्मप्रभमलधारिदेव एक छन्द लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (हरिगीत) अचौर्यव्रत इस लोक में धन सम्पदा का हेतु है। परलोक में देवांगनाओं के सुखों का हेतु है।। शुद्ध एवं सहज निर्मल परिणति के संग से। परम्परा से मुक्तिवधु का हेतु भी कहते इसे ||७|| यद्यपि यह उग्र अचौर्यव्रत इस लोक में रत्नों के संचय को आकर्षित करता है और परलोक में देवांगनाओं के सुख का कारण है; तथापि क्रमानुसार मुक्तिरूपी अंगना (स्त्री) के सुख का कारण भी है।
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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