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________________ व्यवहारचारित्राधिकार (मालिनी) भवति तनुविभूति: कामिनीनां विभूतिं स्मरसि मनसि कामिंस्त्वं तदा मद्वचः किम् । सहजपरमतत्त्वं स्वस्वरूपं विहाय व्रजसि विपुलमोहं हेतुना केन चित्रम् ।।७९।। सव्वेसिं गंथाणं चागो णिरवेक्खभावणापुव्वं । पंचमवदमिदि भणिदं चारित्तभरं वहंतस्स ।।६०।। सर्वेषां ग्रन्थानां त्यागो निरपेक्षभावनापूर्वम् । पंचमव्रतमिति भणितं चारित्रभरं वहतः ।।६०॥ इस गाथा और उसकी टीका में मात्र इतना ही कहा गया है कि महिलाओं के लक्ष्य से उत्पन्न होनेवाले रमणरूप भाव और मैथुनरूप प्रवृत्ति का त्याग ही ब्रह्मचर्य नामक चौथा व्रत है। उक्त कथन व्यवहार ब्रह्मचर्य का है। निश्चय ब्रह्मचर्य तो छठवें-सातवें गुणस्थान में झूलते रहनेवाले मुनिराजों की मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी आदि तीन कषाय चौकड़ी के अभाव में होनेवाली वीतराग परिणति ही है।।५९|| इसके बाद पद्मप्रभमलधारिदेव एक छन्द लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (हरिगीत) कामी पुरुष यदि तू सदा ही कामनी की देह के। सौन्दर्य के संबंध में ही सोचता है निरन्तर|| तेरे लिये मेरे वचन किस काम के किस हेतु से। निजरूपको तज मोह में तूफंस रहा है निरन्तर||७९|| हे कामी पुरुष ! यदि तू सुन्दर महिलाओं के शरीर के सौन्दर्य को देख-देखकर मन में उसका ही स्मरण करता रहता है, विचार करता रहता है तो फिर मेरे वचनों से तुझे क्या लाभ होगा? अहो आश्चर्य तो यह है कि सहजपरमतत्त्वरूप निजस्वरूप को छोड़कर तू अत्यधिक मोह को किसलिए प्राप्त हो रहा है? उक्त छन्द में निरन्तर वैराग्यभाव में सराबोर रहनेवाले मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव अत्यन्त आश्चर्यचकित होकर कह रहे हैं कि यह जगत अनंत आनंद के कंद निज परमात्मतत्त्व के सौन्दर्य से विरक्त होकर अत्यन्त मलिन नारी की देह में अनुरक्त क्यों हो रहा है ? तू इस बात पर जरा गंभीरता से विचार कर । खेद व्यक्त करते हए आचार्यदेव कह रहे हैं कि ऐसे लोगों को वैराग्यरस के पोषक हमारे उपदेश से कोई लाभ होनेवाला नहीं है||७९||
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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