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________________ शुद्धभाव अधिकार ११३ योग्यद्रव्यभावकर्मणामभावान्निर्दण्डः । निश्चयेन परमपदार्थव्यतिरिक्तसमस्तपदार्थसार्थाभावान्निर्द्वन्द्वः । प्रशस्ताप्रशस्तसमस्तमोहरागद्वेषाभावान्निर्ममः । निश्चयेनौदारिकवैक्रियिकाहारकतैजसकार्मणाभिधानपंचशरीरप्रपंचाभावान्नि:कलः । निश्चयेन परमात्मनः परद्रव्यनिरवलम्बत्वान्निरालंबः। मिथ्यात्ववेदरागद्वेषहास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्साक्रोधमानमायालोभाभिधानाभ्यन्तरचतुर्दशपरिग्रहाभावान्नीरागः। निश्चयेन निखिलदुरितमलकलंकपंकनिनिक्तसमर्थसहजपरमवीतरागसुखसमुद्रमध्यनिर्मग्नस्फुटितसहजावस्थात्मसहजज्ञानगात्रपवित्रत्वानिर्दोषः। सहजनिश्चयनयबलेन सहजज्ञानसहजदर्शनसहजचारित्रसहजपरमवीतरागसुखाद्यनेकपरमधर्माधारनिजपरमतत्त्वपरिच्छेदनसमर्थत्वान्निर्मूढः, अथवा साद्यनिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्धसद्भूतव्यवहारनयबलेन त्रिकालत्रिलोकवर्तिस्थावरजंगमात्मकनिखिलद्रव्यगुणपर्यायैकसमयपरिच्छित्तिसमर्थसकलविमलकेवलज्ञानावस्थत्वान्निर्मढश्च । निखिलदुरितवीरवैरिवाहिनीदुःप्रवेशनिजशुद्धान्तस्तत्त्वमहादुर्गनिलयत्वान्निर्भयः । अयमात्मा ह्युपादेयः इति । मनदण्ड, वचनदण्ड और कायदण्ड के योग्य द्रव्यकर्मों और भावकर्मों का अभाव होने से आत्मा निर्दण्ड है। निश्चयरूप से आत्मा में परमपदार्थ के अतिरिक्त अन्य सभी पदार्थों का अभाव होने से आत्मा निर्द्वन्द्व है। प्रशस्त और अप्रशस्त समस्त मोह-राग-द्वेष का अभाव होने से आत्मा निर्मम है। निश्चय से औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण नामक पाँचों शरीरों का आत्मा में अभाव होने से आत्मा निक्कल (निःशरीर) है। निश्चय से परमात्मा को परद्रव्यों के अवलम्बन का अभाव होने से आत्मा निरालंब है। आत्मा में मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा तथा स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद ह्न इन चौदह अभ्यन्तर परिग्रहों का अभाव होने से आत्मा निराग है। निश्चय से सम्पूर्ण पापमलकलंकरूपी कीचड़ को धो डालने में समर्थ, सहज, परमवीतराग, सुखसमुद्र में निमग्न, प्रगट, सहज अवस्थारूप, सहजज्ञानशरीर के द्वारा पवित्र होने के कारण आत्मा निर्दोष है। सहज निश्चयनय के बल से सहज ज्ञान, सहज दर्शन, सहज चारित्र, सहज परमवीतरागसुख आदि अनेक परमधर्मों के आधारभूत निज परमतत्त्व को जानने में समर्थ होने से आत्मा निर्मूढ है अथवा शुद्धसद्भूत-व्यवहारनय के बल से सादि-अनंत, अमूर्त, अतीन्द्रिय स्वभाववान तथा तीन काल और तीन लोक के स्थावर-जंगमस्वरूप समस्त द्रव्य-गुण-पर्यायों को एक समय जानने में समर्थ सम्पूर्णत: निर्मल केवलज्ञानरूप से अवस्थित होने से, केवलज्ञानस्वभावी होने से आत्मा निर्मूढ़ है। और समस्त पापरूपी शूरवीर शत्रुओं की सेना जिसमें प्रवेश नहीं कर सकती ह ऐसे निज शुद्ध अन्त:तत्त्वरूप महादुर्ग में निवास करने से आत्मा निर्भय है। ऐसा यह आत्मा ही वस्तुत: उपादेय है।"
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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