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________________ ११२ नियमसार णिइंडो णिबंदो णिम्मओ णिक्कलो णिरालंबो। णीरागो णिद्दोसो णिम्मूढो णिब्भयो अप्पा ।।४३।। निर्दण्डः निर्द्वन्द्वः निर्मम: नि:कल: निरालंबः। नीरागः निर्दोषः निर्मूढः निर्भयः आत्मा ।।४३।। इह हिशुद्धात्मनः समस्तविभावाभावत्वमुक्तम् । मनोदण्डो वचनदण्ड: कायदण्डश्चेत्येतेषां दूसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र (रोला) भक्तामर की मुकुट रत्नमाला से वंदित। चरणकमल जिनके वे महावीर तीर्थंकर|| का पावन उपदेश प्राप्त कर शीलपोत से। संत भवोदधि तीर प्राप्त कर लेते सत्वर||६१|| भक्ति से नमस्कार करते हुए देवेन्द्र के मुकुट में जड़ित रत्नों की प्रभा से प्रकाशित हैं चरणकमल जिनके; उन तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्म-जरा-मृत्यु और पाप समूह का नाशक उपदेश प्राप्त कर, सत्शील रूपी जहाज द्वारा, संतगण संसार सागर से उस पार पहुँच जाते हैं। इस छन्द को हम मध्य मंगलाचरण के रूप में देख सकते हैं। इसमें शत इन्द्रों से पूजित भगवान महावीर के उपदेश से सत्शीलरूप जहाज के सहारे संतगण संसार समुद्र से पार होते हैं ह्न यह कहा गया है। तात्पर्य यह है कि तीर्थंकरों की वाणी, जिनवाणी के माध्यम से तत्त्व समझकर, आत्मानुभूति पूर्वक संयम धारण करके संसार से पार हुआ जा सकता है, मुक्ति की प्राप्ति की जा सकती है।।६१।। विगत गाथा में चतुर्गति परिभ्रमण व जन्म-जरादि भावों से आत्मा को भिन्न बताकर अब इस गाथा में आत्मा का स्वरूप निर्दण्डादिरूप है ह्न यह समझाते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (हरिगीत ) निर्दण्ड है निर्द्वन्द है यह निरालम्बी आतमा। निर्देह है निर्मूद है निर्भयी निर्मम आतमा ||४३|| यह आत्मा निर्दण्ड है, निर्द्वन्द है, निर्मम है, अदेह है, निरालंबी है, नीराग है, निर्दोष है, निर्मूढ है और निर्भय है। इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न “यहाँ इस गाथा में यह कहा गया है कि शुद्धात्मा के समस्त विभावों का अभाव है।
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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