SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११४ तथा चोक्तममृताशीतौ ह्र ( मालिनी ) स्वरनिकरविसर्गव्यंजनाद्यक्षरैर्यद् रहितमहितहीनं शाश्वतं मुक्तसंख्यम् । अरसतिमिररूपस्पर्शगंधाम्बुवायु क्षितिपवनसखाणुस्थूल दिक्चक्रवालम् ।। २१ । । ' नियमसार उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि परमशुद्धनिश्चयनय अथवा परमभावग्राही शुद्धद्रव्यार्थिकनय के विषयभूत परमपारिणामिकभावरूप त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा में मनवचन-कायरूप दण्ड नहीं है; परपदार्थों और परभावों का अभाव होने से किसी भी प्रकार का द्वैत नहीं है; औदारिकादि पाँच शरीर नहीं हैं; परद्रव्यों का आलम्बन नहीं है; चौदह प्रकार के अंतरंग परिग्रह नहीं हैं; किसी भी प्रकार का कोई दोष नहीं है; किसी भी प्रकार की मूढता 'और भय नहीं है; अत: वह निर्दण्ड है, निर्द्वन्द्व है, निर्मम है, अदेह है, निरालम्बी है, नीराग है, निर्दोष है, निर्मूढ है और निर्भय है। ऐसा भगवान आत्मा ही उपादेय है । तात्पर्य यह है कि ऐसा निज भगवान आत्मा ही अपनापन स्थापित करने योग्य है और इसी में समा जाना साक्षात् धर्म है ॥ ४३ ॥ इसके उपरान्त मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव ' तथा अमृताशीति में भी कहा है' ह्न ऐसा लिखकर एक छन्द उद्धृत करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र ( हरिगीत ) जो आतमा स्वरव्यंजनाक्षर अंक के समुदाय से । स्पर्श रस गंध रूप से अर अहित से अंधकार से ।। भूमि जल से अनल से अर अनिल की अणु राशि से । दिगचक्र से भी रहित वह नित रहे शाश्वत भाव से || २१ || यह भगवान आत्मा स्वर समूह, विसर्ग और व्यंजनादि अक्षरों से रहित, संख्या से रहित और अहित से रहित शाश्वत तत्त्व है। अंधकार से रहित यह आत्मतत्त्व स्पर्श, रस, गंध और रूप से भी रहित है । इनके अलावा पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु के अणुओं से भी रहित है तथा स्थूल दिशाओं के समूह से भी रहित है । तात्पर्य यह है कि दृष्टि का विषयभूत भगवान आत्मा अकारादि स्वरों; क, ख आदि १. योगीन्द्रदेव, अमृताशीति, श्लोक ५७
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy