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________________ शुद्धभाव अधिकार १११ तथाहि ह्न (मालिनी) अनवरतमखण्डज्ञानसद्भावनात्मा व्रजति न च विकल्पं संसृते?ररूपम् । अतुलमनघमात्मा निर्विकल्पः समाधिः परपरिणतिदूरं याति चिन्मात्रमेषः ।।६०।। (स्रग्धरा) इत्थं बुद्ध्वोपदेशं जननमृतिहरं यं जरानाशहेतुं भक्तिप्रह्वामरेन्द्रप्रकटमुकुटसद्रत्नमालार्चितांघेः। वीरातीर्थाधिनाथादुरितमलकुलध्वांतविध्वंसदक्षं एते संतो भवाब्धेरपरतटममी यांति सच्छीलपोताः ।।६१।। योग्य नहीं हैं, निजरूपजानने योग्य नहीं हैं, जमने-रमने योग्य नहीं हैं; अत: हे आत्मन् अन्य सभी भावों से एकत्व-ममत्व तोड़कर स्वयं में ही समा जावो ||२०|| ___ इसके बाद मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव दो छन्द स्वयं लिखते हैं, उनमें से पहले छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न (रोला) रहे निरन्तर ज्ञानभावना निज आतम की। जिनके वे नर भव विकल्प में नहीं उलझते॥ परपरिणति से दूर समाधि निर्विकल्प पा। पा जाते हैं अनघ अनूपम निज आतम को।।६०|| अनवरतरूप से अखण्ड ज्ञान की सद्भावनावाला आत्मा संसार के घोर विकल्पों में नहीं उलझता; अपितु निर्विकल्प समाधि को प्राप्त करता हुआ परपरिणति से दूर, अनुपम, अनघ (पाप रहित) चिन्मात्र आत्मा को प्राप्त करता है। इस छन्द में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि इस भगवान आत्मा की आराधना करनेवाला आत्मा सांसारिक विकल्पों में नहीं उलझता; वह तो निर्विकल्प समाधि को प्राप्त करके अनुपम चिन्मात्र निज भगवान आत्मा को प्राप्त करता है। ___ तात्पर्य यह है कि यदिहम भी आत्मा की आराधना करना चाहते हैं तो हमें सांसारिक विकल्पों से दूर ही रहना चाहिए; क्योंकि निर्विकल्पहुए बिना आत्मा की प्राप्ति संभव नहीं है।॥६०||
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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