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________________ शुद्धभाव अधिकार १०७ चउगइभवसंभमणं जाइजरामरणरोगसोगा य । कुलजोणिजीवमग्गणठाणा जीवस्स णो संति ॥ ४२ ॥ चतुर्गतिभवसंभ्रमणं जातिजरामरणरोगशोकाश्च । कुलयोनिजीवमार्गणस्थानानि जीवस्य नो सन्ति । ।४२।। इह हि शुद्धनिश्चयनयेन शुद्धजीवस्य समस्तसंसारविकारसमुदयो न समस्तीत्युक्तम् । द्रव्यभावकर्मस्वीकाराभावाच्चतुसृणां नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवत्वलक्षणानां गतीनां परिभ्रमणं न भवति । नित्यशुद्धचिदानन्दरूपस्य कारणपरमात्मस्वरूपस्य द्रव्यभावकर्मग्रहणयोग्यविभाचतुरचित्तवाले हे मुनिजनों ! तुम संसारबंधन से मुक्त होने के लिए सभी प्रकार के शुभकर्मों को छोड़ो और सारतत्त्वरूप द्रव्य और भाव ह्र दोनों प्रकार के समयसार (शुद्धात्मा) को भजो। इसमें क्या दोष है ? अर्थात् इसमें कोई दोष नहीं है । इस छन्द में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में यह कहा गया है कि सभी प्रकार के शुभ कर्मों का फल अधिकांशतः भोग सामग्री की उपलब्धि ही होता है। यही कारण है कि यहाँ चतुरचित्तवाले मुनिराजों से यह अनुरोध किया गया है कि वे सभी प्रकार के शुभकर्मों से विरक्त हो निज शुद्धात्मा का ध्यान करें। साथ में यह भी कहा गया है कि हम जो कह रहे हैं; वह बात पूर्णत: निर्दोष है । इस कथन में किसी भी प्रकार का दोष निकालना समझदारी का काम नहीं है ।। ५९ ।। जीव के क्षायिकभाव, क्षयोपशमभाव, उपशमभाव और उदयभाव के स्थान नहीं हैं विगत गाथा में यह स्पष्ट करने के उपरान्त अब इस गाथा में यह बताते हैं कि जीव के चतुर्गति परिभ्रमण, जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक, कुल, योनि, जीवस्थान और मार्गणास्थान भी नहीं हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र ( हरिगीत ) चतुर्गति भव भ्रमण रोग रु शोक जन्म-जरा-मरण । जीवमार्गणथान अर कुल-योनि ना हों जीव के ॥ ४२ ॥ चार गति के भवों में परिभ्रमण, जन्म, जरा, मरण, शोक, रोग, कुल, योनि, जीवस्थान और मार्गणास्थान भी इस जीव के नहीं हैं । इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “यहाँ इस गाथा में यह कहा गया है कि शुद्धनिश्चयनय से शुद्धजीव के समस्त संसार विकारों का समुदाय नहीं है । द्रव्यकर्म और भावकर्मों की स्वीकृति का अभाव होने से नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव ह्न इन चार गतियों का परिभ्रमण जीव के नहीं है । नित्य शुद्ध चिदानन्दस्वरूप कारणपरमात्मस्वरूप जीव के द्रव्यकर्म व भावकर्म के ग्रहण करने योग्य
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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