SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०६ नियमसार (आर्या) अंचितपंचमगतये पंचमभावंस्मरन्ति विद्वान्सः। संचितपंचाचाराः किंचनभावप्रपंचपरिहीणाः ।।५८।। (मालिनी) सुकृतमपि समस्तं भोगिनां भोगमूलं ___ त्यजतु परमतत्त्वाभ्यासनिष्णातचित्तः। उभयसमयसारं सारतत्त्वस्वरूपं भजतु भवविमुक्त्यै कोऽत्र दोषो मुनीशः ।।५९ ।। यदि काललब्धि को क्षयोपशमलब्धि और उपशमलब्धि को विशुद्धिलब्धि माने तो भी दोनों कथनों में क्रम का अन्तर तो है ही।।४।। टीका के अन्त में मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव दो छन्द लिखते हैं। उनमें से पहले छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह (दोहा) विरहित ग्रंथ प्रपंच से पंचाचारी संत | पंचमगति की प्राप्ति को पंचमभाव भजंत ||५८|| ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्यरूप पंचाचारों से युक्त एवं सम्पूर्ण परिग्रह के प्रपंच से रहित विद्वान (मुनिराज) पूज्यनीय पंचमगति को प्राप्त करने के लिए पंचमभावरूप परमपारिणामिकभाव का स्मरण करते हैं; उसी को निजरूप जानते हैं, उसमें ही अपनापन स्थापित करते हैं और उसी का ध्यान करते हैं। ध्यान रहे इस छन्द में विद्वान शब्द का प्रयोग सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र से सम्पन्न मुनिराजों के अर्थ में किया गया है; क्योंकि पंचाचारों से सम्पन्न और सभी प्रकार के परिग्रहों से रहित मुनिराज ही होते हैं ।।५८।। दूसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र (हरिगीत) भोगियों के भोग के हैं मूल सब शुभकर्म जब। तत्त्व के अभ्यास से निष्णातचित मुनिराज तब || मुक्त होने के लिए सब क्यों न छोड़ें कर्म शुभ। क्यों ना भजें शुद्धातमा को प्राप्त जिससे सर्व सुख ।।५९|| सभी प्रकार के शुभकर्म भोगियों के भोग के मूल हैं। इसलिए परम तत्त्व के अभ्यास में
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy