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________________ १०५ तीर्थकरत्वोपार्जितसकलविमलकेवलावबोधसनाथतीर्थनाथस्य भगवत: सिद्धस्य वा भवति । औदयिकौपशमिकक्षायोपशमिकभावा: संसारिणामेव भवन्ति, न मुक्तानाम् । पूर्वोक्तभावचतुष्टयमावरणसंयुक्तत्वात् न मुक्तिकारणम् । त्रिकालनिरुपाधिस्वरूपनिरंजननिजपरमपंचमभावभावनया पंचमगतिं मुमुक्षवो यान्ति यास्यन्ति गताश्चेति । शुद्धभाव अधिकार तीर्थंकरत्व द्वारा प्राप्त होनेवाले सकल-विमल केवलज्ञान से युक्त तीर्थनाथ के उपलक्षण से सामान्य केवली के तथा सिद्धभगवान के होता है । औदयिक, औपशमिक और क्षायोपशमिक भाव संसारियों के ही होते हैं, मुक्त जीवों के नहीं। पूर्वोक्त चार भाव आवरण संयुक्त होने से मुक्ति के कारण नहीं हैं । त्रिकालनिरुपाधि स्वरूप निरंजन निज परमपंचमभाव (परमपारिणामिकभाव) की भावना से पंचमगति में मुमुक्षु जाते हैं, जायेंगे और गये हैं । " इस गाथा में मूल बात तो मात्र यही कही गई है कि भगवान आत्मा में न तो औपशमिकभाव हैं, न क्षायोपशमिकभाव हैं, न क्षायिकभाव हैं और न औदयिक भाव ही हैं; वह तो परमपारिणामिकभावस्वरूप ही है। टीका में उक्त पाँचों भावों के ५३ भेद गिना कर यह स्पष्ट कर दिया है कि एक जीवत्व नामक परमपारिणामिकभाव को छोड़कर शेष ५२ भाव आत्मा नहीं हैं । अन्त में कह दिया कि मुक्ति की प्राप्ति तो एकमात्र परमपारिणामिकभाव के आश्रय से ही होती है । जानने योग्य विशेष बात यह है कि इस गाथा की टीका में १८ प्रकार के क्षायोपशमिक भावों में समागत पाँच लब्धियों के जो नाम गिनाये गये हैं; वे आचार्य उमास्वामी कृत तत्त्वार्थसूत्र पर आचार्य अकलंकदेव कृत तत्त्वार्थराजवार्तिक नामक वार्तिक से मिलते नहीं हैं। यहाँ नियमसार की तात्पर्यवृत्ति टीका में १८ प्रकार के क्षायोपशमिक भावों में काललब्धि, करणलब्धि, उपदेश (देशना) लब्धि, उपशमलब्धि और प्रायोग्यलब्धि के रूप में पाँच लब्धियों को लिया है; जबकि तत्त्वार्थराजवार्तिक के दूसरे अध्याय के पाँचवें सूत्र के सातवें वार्तिक में क्षायिकदान, क्षायिकलाभ, क्षायिकभोग, क्षायिक उपभोग और क्षायिकदान ह्न इनको पाँच लब्धि के रूप में लिया गया है। उपशम सम्यग्दर्शन के पूर्व होनेवाली पाँच लब्धियों में इसप्रकार के भेद अवश्य पाये जाते हैं; किन्तु उक्त प्रकरण का यहाँ कोई प्रसंग नहीं है । दूसरी बात यह है कि वहाँ जो नाम प्राप्त होते हैं, ये नाम पूरी तरह उनसे भी नहीं मिलते। वहाँ प्राप्त होनेवाले नाम इसप्रकार हैं ह्न क्षयोपशमलब्धि, विशुद्धिलब्धि, देशनालब्धि, प्रायोग्यलब्धि और करणलब्धि । नियमसार की तात्पर्यवृत्ति टीका में समागत पाँच लब्धियों में क्षयोपशमलब्धि और विशुद्धिलब्धि प्राप्त नहीं होती। उनके स्थान पर काललब्धि और उपशमलब्धि है। १. तत्त्वार्थराजवार्तिक : अध्याय २, सूत्र ५ का ८वाँ वार्तिक २. गोम्मटसार: जीवकाण्ड, गाथा ६५१
SR No.009464
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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