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________________ निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व नामक समवाय कौन और किस प्रकार का रहा है यह बतलाने के लिये तथा विकार किस जाति के उत्पन्न हुए हैं, उनका विवेचन करके स्पष्ट करने के लिये किये जाते हैं। इसलिये ऐसे कथनों के द्वारा आत्मार्थी • भ्रमित नहीं होता वरन् आत्मा में विकार के उत्पादक कारणों की खोज विशेष रुचि के द्वारा करने लगता है। (इसका विवेचन भाग २ में किया गया है वहाँ से अध्ययन करना चाहिये ।) आत्मा के विकार का कर्ता कौन ? उपरोक्त कारणों की खोज के लिये रुचि की उग्रता पूर्वक आत्मार्थी मोक्षमार्गप्रकाशक, पंचास्तिकाय एवं प्रवचनसार ग्रंथों के अध्ययन मननपूर्वक एवं इसी पुस्तकमाला के पूर्व भागों के साथ-साथ भाग १ के भी अध्ययन अनुसार इस निर्णय पर पहुँच जाता है कि मेरी आत्मा की पर्याय में उत्पन्न होने वाले विकार भावों की उत्पत्ति का कारण न तो अचेतन बाह्य परिकर मकान जायदाद, रुपया-पैसा आदि की विद्यमानता है और न बाह्य सचेतन परिकर, स्त्री, पुत्र, भ्राता, पितादि की विद्यमानता है। तथा शरीरादि नोकर्म और आत्मा के साथ लगे आ रहे ऐसे, कार्माण शरीरादि द्रव्यकर्म का संयोग (विद्यमानता ) अथवा द्रव्यकर्मों का उदय आना भी आत्मा के विकार उत्पादन का कारण नहीं है। क्योंकि ये तो आत्मा की जाति से भिन्न अस्तित्व रखने वाले ज्ञेय पदार्थ (परज्ञेय) हैं। 36 अज्ञानी अनादि कालीन पर रूप ही अपना अस्तित्व मानते हुए अर्थात् पर ज्ञेयों में अपनापन मानते हुए तथा उनमें ही अपना सुख मानने की सुखबुद्धि मानते हुए, उनमें ही एकत्व-ममत्व स्वामित्व एवं कर्तृत्व- भोक्तृत्व की मान्यता के साथ परिणमता चला आ रहा है। फलत: उपरोक्त पदार्थों में से कोई भी ज्ञेय ज्ञान में ज्ञात होते ही, उनको निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व अपना मानकर उनमें एकत्व कर पर्याय में मिथ्यात्व, राग-द्वेषारूप विकार का उत्पादन करता चला आ रहा है। यह एक ही रागादि उत्पन्न होने का कारण है। 37 इसप्रकार आत्मार्थी इस निष्कर्ष पर पहुँच जाता है कि अनादिकाल से अज्ञान के कारण पर्याय की शुद्धि के लिए रागादि भावों की तीव्रता घटाकर मंदता करने का ही पुरुषार्थ करता रहा और इसी को वीतरागता प्राप्त करने का उपाय भी मानता रहा, लेकिन उसमें रंचमात्र भी वीतरागता का उत्पादन नहीं हो पाया। उपरोक्त विचारों के द्वारा अब यह स्पष्ट हो गया कि जब तक मान्यता विपरीत रहेगी तबतक, परज्ञेय जिनको अपना मान रखा है उन ही के रक्षण-पोषण में ही लगा रहूँगा; लेकिन पर ज्ञेय मेरे आधीन नहीं होने से अपनी-अपनी योग्यतानुसार परिणमते हैं और परिणमते रहेंगे। फलतः मेरे राग द्वेषादि का उत्पादन अवश्यम्भावी है। कभी तो मंद होंगे तो कभी उग्र हो जावेंगे लेकिन अभाव तो हो नहीं सकेगा । तात्पय यह है कि जब तक मान्यता विपरीत रहेगी तब तक रागादि का अभाव नहीं हो सकेगा। अतः मेरे पुरुषार्थ को कषाय की उग्रता से मंदता करने अथवा पर्याय में कुछ भी परिवर्तन करने की ओर से समेटकर, पर में मेरेपने की मान्यता के अभाव करने में पुरुषार्थ लगा देना चाहिये। इस प्रकार पर्याय के अनुसंधान का फल प्राप्त होता है। भावकर्मों को अथवा द्रव्यकर्मों को दोषी बतलाने वाले अर्थात् द्रव्यकर्मों को आत्मा का दुश्मन कहने अथवा रागादि भावकर्मों की उग्रता को बुरा कहकर रागादि विकारी भावों की मंदता को मोक्षमार्ग के साधक अथवा उपादेय बताने वाले कथनों को पढ़कर अथवा सुनकर भी भ्रमित नहीं होता, उपरोक्त निष्कर्ष से प्राप्त मान्यता से चलित नहीं होता । उपरोक्त निर्णय से आत्मार्थी की रुचि एवं पुरुषार्थ अपनी पर्याय
SR No.009463
Book TitleNirvikalp Atmanubhuti ke Purv
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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