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________________ निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व सुधारने के प्रयासों से भी सिमटकर अपनी मान्यता अर्थात् श्रद्धाविश्वास बदलने के उपायों के खोजने में सीमित हो जाता है। उक्त निष्कर्ष पर पहुँचने वाले आत्मार्थी की मन-वचन-काय की प्रवृत्ति में भी स्वतः सहज रूप से परिवर्तन आ जाता है। फलस्वरूप उसकी मोक्ष प्राप्त करने की पात्रता बढ़ जाती है। ऐसा जीव निकटभव्य एवं अल्प संसारी जीवों की श्रेणी में आ जाता है। पर में अर्थात् पर ज्ञेयों में अपनापन मानने की मिथ्या मान्यता रूप मिथ्यात्व नामक भावकर्म शिथिलता (क्षीणता) को प्राप्त होकर सम्यक्त्व प्राप्त करने योग्य पात्रता में पहुँच जाता है। साथ ही अनंतानुबंधी कषाय जो चारित्रमोहनीय कर्म सम्यक्त्व की घातक प्रकृति है; उसमें भी पर के साथ एकत्व बुद्धिपूर्वक सुख प्राप्त करने की बुद्धि भी ढ़ीली (क्षीण) पड़ जाती है और चारित्र पर्याय भी शुद्धता प्राप्त करने योग्य पात्रता उत्पन्न कर लेती है । इस समस्त उपलब्धि का श्रेय तो रुचि की वास्तविकता एवं उग्रता को है, 'रुचि अनुयायी वीर्य' होने से पुरुषार्थ सहज रूप से रुचि का अनुसरण करता है, फलस्वरूप रुचि के साथ विपरीत विषय गौण (उपेक्षित) रहते हुए प्रयोजन सिद्ध करने में बलवान पृष्टबल का कार्य करते है । 38 अब तो आत्मा का पुरुषार्थ अपनी मिथ्या मान्यता के अभाव करके अपने अस्तित्व रूप ध्रुव स्वभाव में ही अपनापन स्थापन (प्राप्त करने के उपायों के समझने पर सिमटकर केन्द्रित हो जाता है। ध्यान रहे उपरोक्त समस्त प्रकार के निर्णय देशनालब्धि के अंतर्गत ही विकल्पात्मक ज्ञान में हो रहे हैं। अभी प्रायोग्यलब्धि प्रारंभ नहीं हुई है, लेकिन प्रायोग्य में पदार्पण करने योग्य पात्रता में क्रमशः वृद्धि होती जा रही है, लेकिन यह भी ध्यान रहे कि ये सब विकल्पात्मक निर्णय होते हुये भी, रुचि विहीन मात्र विकल्प भी नहीं हैं। रुचि के साथ होने से पर्याय में क्रमशः शुद्धता भी बढ़ती जाती है। निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व मिथ्या मान्यता की उत्पत्ति कैसे व नाश का उपाय क्या ? 39 प्रश्न- उपरोक्त प्रकार से आत्मार्थी सब ओर से सिमटकर, अपनी मान्यता को सम्यक् करने पर केन्द्रित हो जाता है। विचार करता है कि अपनेपन की मान्यता अर्थात् श्रद्धा करना तो श्रद्धागुण का परिणमन है अर्थात् श्रद्धागुण की पर्याय है। श्रद्धागुण तो आत्मा का गुण है, उसका परिणमन तो अपने स्वामी को ही अपना मानना होना चाहिये ? वह विपरीत परिणमन कैसे करेगा ? उत्तर - यह तो परम सत्य है कि द्रव्य के किसी भी गुण को अपने स्वामी के विपरीत नहीं परिणमना चाहिये, क्योंकि गुण और गुणी में तो स्वस्वामी संबंध है अर्थात् गुण का स्वामी तो गुणी है। ऐसा स्वभाव होते हुये विपरीतता भी अनुभव में आ रही है। इसलिये ऐसी विचित्र स्थिति का समाधान तो होना ही चाहिये। अभी तक की हमारी खोज की पद्धति नास्ति की मुख्यता से चल रही थी अर्थात् छह द्रव्यों में से पाँच द्रव्य मेरे नहीं हैं, अन्य जीव द्रव्य भी मेरे से भिन्न हैं; इसी प्रकार अभी तक नास्ति पूर्वक ही अनुसंधान किया था, अब यहाँ से उपरोक्त समस्या के समाधान के लिये हमें अस्ति पक्ष को मुख्य करके अन्वेषण करना अनिवार्य हो गया है। मिथ्या मान्यता के अभाव करने का उपाय सम्यक् मान्यता का स्वरूप एवं सम्यक् मान्यता के उपायों को समझे बिना तथा मिथ्या मान्यता के उत्पादक कारणों की खोज किये बिना कैसे सफल हो सकेगा ? नहीं हो सकेगा। श्रद्धागुण के सम्यक् परिणमन अर्थात् सम्यग्दर्शन का स्वरूप और चारित्र गुण के सम्यक् परिणमन अर्थात् सम्यग्चारित्र का स्वरूप
SR No.009463
Book TitleNirvikalp Atmanubhuti ke Purv
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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