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________________ 32 निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व अपना अस्तित्व ध्रुवरूप मान लेता है, क्योंकि निगोद से लगाकर अनेक भव परितर्वन हो गये तो भी मेरा अस्तित्व तो अभी तक ध्रुव बना हुआ है तथा भविष्य में भी सिद्ध दशा तक पहुँच जाने पर भी मेरा अस्तित्व तो ज्यों का त्यों ही ध्रुव बना रहेगा। निगोद में भी ध्रुव में रंच मात्र भी कमी नहीं आई और सिद्ध होने पर कुछ बढ़ने वाला भी नहीं है। ऐसा ध्रुव बने रहने वाला द्रव्य है वही मैं हूँ।' नाश होने वाला मेरा स्वरूप-स्वभाव ही नहीं है। अत: अनित्य स्वभावी पर्याय, वह भी मैं नहीं हूँ; उसका जीवन ही एक समयमात्र है पश्चात् वह स्वयं ही व्यय हो जावेगी, लेकिन मैं तो हर स्थिति में ध्रुव बना रहता हूँ अत: ऐसा अजर-अमर स्थाई ध्रुव ही मैं हूँ। इसलिये वे सब पर्यायें कैसी भी हों कोई भी हों सब पर के रूप में रह जाती हैं, मुझे उनको पर करना नहीं पड़ता । तात्पर्य यह है कि अपने ध्रुव तत्त्व में आत्मपना निर्णीत हो जाने से रुचि अन्य सबसे सिमटकर स्व में मर्यादित हो जाती है। फलत: पुरुषार्थ भी सब ओर से सिमटकर रुचिका अनुसरण करते हुये स्वसन्मुख कार्य शील होने के लिये अग्रसर हो जाता है। उत्पाद-व्यय पक्ष का अनुसंधान पर्याय की शुद्धि हुए बिना भी आत्मा का प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता। ध्रुव तो सिद्ध भगवान के समान मेरा भी है, लेकिन उनकी पर्याय में ध्रुव की पूर्ण सामर्थ्य प्रगट हो गई और मेरी पर्याय में नहीं हुई। अत: उनकी आत्मा पूर्ण सुख का अनंतकाल तक उपभोग करती रहेगी। मेरे ध्रुव में भी पूर्ण सामर्थ्य विद्यमान है, लेकिन पर्याय में तो दुःख की ही प्रगटता हो रही है। अत: निश्चित होता है कि पर्याय की शुद्धि के लिये पूर्णनिष्ठा के साथ शुद्धिकरण का उपाय करना ही पड़ेगा। ऐसा निर्णयकर आत्मार्थी ध्रुव के समान ही पर्याय शुद्धि की योग्यता प्रगट करने के लिये कटिबद्ध होकर अनुसंधान करने में संलग्न हो जाता है। निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व 33 आत्मार्थी ने भले प्रकार समझकर निर्णय कर लिया है कि मेरा ध्रुवतत्त्व तो सिद्ध समान है ऐसी श्रद्धा ने मेरे में ऐसा विश्वास बल प्रदान कर दिया कि मैं स्वयं सिद्ध भगवान बन सकता हूँ। क्योंकि अनंत आत्मा जो सिद्ध दशा को प्राप्त हो चुके हैं वे भी पहले भवों में मेरे समान ही थे अत: मैं भी सिद्ध भगवान अवश्य बन सकूँगा। ऐसा अनंत बल ऐसी श्रद्धा प्रदान कर देती है, लेकिन मात्र श्रद्धा मात्र ही पर्याय के उत्पादन को नहीं बदल सकेगी। तात्पर्य यह है कि ध्रुवतत्त्व श्रद्धा का श्रद्धेय तथा आश्रय करने योग्य तत्व तो है, लेकिन उसके आश्रय पूर्वक पर्याय शुद्धि का महान कार्य सम्पन्न होने पर ही आत्मा सिद्ध बन सकेगा। इस प्रकार की आवश्यकता अनुभव करते हुए आत्मार्थी पर्याय का अनुसंधान करता है। अनुसंधान प्रारम्भ करने के लिये सर्वप्रथम वह नव तत्त्वों के स्वरूप को समझने का प्रयास करता है; क्योंकि नव तत्त्व पर्याय के ही भिन्न-भिन्न रूप हैं। अर्थात् आत्मा की पर्याय ही नव प्रकार के रूपों को धारण करती हुई परिणमती है, उसके प्रकार हैं-जीव तत्त्व, अजीव तत्त्व, इसी प्रकार आस्रव बंध तथा इसी के भेद पुण्य और पाप तत्त्व तथा संवर एवं निर्जरा, मोक्ष तत्त्व होते हैं। इन ही नव में से पुण्य, पाप तत्त्व को आस्रव तत्त्व में ही गर्भित करके सात तत्त्व भी कहा जाता है। सारांश यह है कि जीव नाम का पदार्थ जो मेरा आत्मा है, उसका ध्रुव पक्ष तो सदैव ध्रुव ही बना रहता है और उसके ध्रुव रहते हुये भी उत्पादव्यय करने वाला जो उसका ही पर्याय पक्ष है वह बदलता रहता है; उस उत्पाद-व्यय करने वाले पर्याय पक्ष के ही ये नौ प्रकार के स्वाँग (वेश) होते हैं। उन स्वागों में ही जीव वेश बदलता हुआ प्राप्त होता है। आत्मार्थी अनुसंधान के लिये पर्याय में सिद्ध जैसी शुद्धि प्राप्त करने के उद्देश्य से इन नव तत्त्वों को हेय, ज्ञेय, उपादेय के रूप में विभाजन
SR No.009463
Book TitleNirvikalp Atmanubhuti ke Purv
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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