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________________ A निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व तात्पर्य यह है कि मेरा द्रव्य अनंत शक्तियाँ, सम्पदाओं सहित अभेदात्मक रहते हुये, 'ध्रुव' भी बना रहता है तथा पलटता अर्थात् उत्पाद - व्यय भी करता रहता है। विश्व के अन्य द्रव्यों के संबंध में विचार करना तो मेरे लिये अप्रयोजनभूत है । अत: मेरे द्रव्य की मर्यादा में रहकर ही मुझे विचार करना है। 30 मेरी आत्मा का ध्रुव तो त्रिकाली सत् है और उत्पाद - व्यय स्वभावी पर्याय का मात्र एक समय का सत् है । उसका हर समय नवीननवीन उत्पाद होता रहता है और नाश होते ही दूसरे समय का उत्पाद आ जाता है। तात्पर्य यह है कि एक-एक समय होकर भी सत्ता का भाव नहीं होता, लेकिन द्रव्य में बसी हुई अनन्त शक्तियों, विशेषताओं का प्रगटीकरण अर्थात् अनुभवन तो पर्याय द्वारा ही होता है। 'ध्रुव ध्रुव ही बना रहता है। वेदन तो क्षणिक होता है अर्थात् पलटता रहता है, यह हमारे अनुभव से भी सिद्ध है। ध्रुव का वेदन (अनुभव) होने लगे तो ध्रुव ध्रुव न रहकर, अध्रुव हो जावेगा। तात्पर्य यह है कि मेरी आत्मा में बसे निराकुलता रूपी अनन्त अतीन्द्रिय सुख का अनुभव (स्वाद - सुख का लाभ ) तो पर्याय द्वारा ही प्राप्त होगा । सिद्ध भगवान को भी ध्रुव में बसे अनन्त अतीन्द्रिय सुख का लाभ उनकी पर्याय द्वारा ही प्रगट हुआ है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि सिद्ध भगवान की पर्याय में जो कुछ भी प्रगट हो रहा है वे सभी सामर्थ्य - शक्तियाँ ध्रुव में त्रिकाल विद्यमान थी। जो ध्रुव में होती ही नहीं तो पर्याय में कहाँ से आ सकती थी। इससे यह स्पष्ट समझ में आ जाता है और विश्वास होता है कि सिद्ध भगवान की वर्तमान दशा (पर्याय) में जो शक्तियाँ सामर्थ्य, विशेषताएँ आदि प्रगट हैं, वे सभी वैसी ही और उतनी ही उनके ध्रुव में विद्यमान थीं। ध्रुव तो आत्माओं (एकेन्द्रिय से लगाकर पञ्चेन्द्रिय तक) का समान है। निर्विकल्प आत्मानुभूति के पूर्व अत: यह सिद्ध है कि मेरा ध्रुव भी सिद्ध भगवान की प्रगट दशा जैसा ही है। निष्कर्ष यह है कि “सिद्ध भगवान की वर्तमान दशा (पर्याय) मेरे ध्रुव की परिचायक है। " 31 उपरोक्त मंथन के द्वारा यह श्रद्धा (विश्वास) जाग्रत हो जाती है कि मेरी आत्मा भी सिद्ध भगवान के समान ही अनन्त अतीन्द्रिय सुख, सर्वज्ञता, पूर्ण वीतरागता आदि अनन्तगुणों को प्रगटकर निश्चितरूप से अनन्त काल तक सुख का उपभोग कर सकती है। ऐसी श्रद्धा (विश्वास) जाग्रत होते ही, रुचि एवं पुरुषार्थ भी सब ओर से सिमटकर, सिद्धदशा प्राप्त करने के लिए अत्यन्त उत्साहवान हो जाता है । मिथ्या मान्यताओं को तिलाञ्जलि देकर, तीव्र रुचि के साथ सिद्ध दशा प्राप्त करने के उपाय की खोज में संलग्न हो जाता है। समयसार ग्रन्थाधिराज की पहली गाथा की टीका में ग्रन्थ प्रारम्भ करने के पूर्व ही आचार्य श्री ने ऐसी श्रद्धा को ही मुख्य किया है। उक्त टीका का निम्न अंश महत्त्वपूर्ण है - सर्वप्रथम कहते हैं कि "सिद्धों को अपने आत्मा में तथा पर आत्मा में स्थापित करके इस समयप्राभृत ग्रन्थ का प्रारम्भ करता हूँ।" फिर आगे कहते हैं कि "वे सिद्ध भगवान सिद्धत्व के कारण साध्य जो आत्मा उसके प्रतिच्छन्द (प्रतिध्वनि आदर्श) के स्थान पर हैं - जिनके स्वरूप का संसारी भव्य जीव चिन्तवन करके उनके समान अपने स्वरूप को ध्याकर उन्हीं के समान हो जाते हैं। आदि।" उक्त कथन से अपने आत्मा को सिद्ध दशा प्राप्त करने का संक्षिप्त-सरल एवं परिपूर्ण उपाय बता दिया है। अतः उपरोक्त प्रकार की श्रद्धा मोक्षमार्ग प्रगट करने का एकमात्र एवं अनुपम उपाय है। उपरोक्त प्रकार से आत्मद्रव्य की स्थिति समझकर आत्मार्थी
SR No.009463
Book TitleNirvikalp Atmanubhuti ke Purv
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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