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________________ मोक्षमार्गप्रकाशक का सार निर्जरा तत्त्व के संबंध में की गई भूल है। और अन्त में आकुलता रहित जो कल्याण स्वरूप मुक्ति है, उसे नहीं जानना ही मोक्षतत्त्व संबंधी भूल है। उक्त भूलों सहित जो भी ज्ञान श्रद्धान है, वे ही दुःखदायी अगृहीत मिथ्याज्ञान और अगृहीत मिथ्या श्रद्धान है। इन अगृहीत मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञान के साथ होनेवाली पंचेन्द्रिय विषयों में प्रवृत्ति ही अगृहीत मिथ्याचारित्र है । इसप्रकार यह वर्णन अगृहीत मिथ्यादर्शन, अगृहीत मिथ्याज्ञान और अगृहीत मिथ्याचारित्र का हुआ। अब इसके बाद गृहीत मिथ्यादर्शन, गृहीत मिथ्याज्ञान और गृहीत मिथ्याचारित्र का वर्णन करते हैं। अनादिकालीन अगृहीत मिथ्यात्व के जोर से शरीर और स्त्री-पुत्रादि संयोगों में एकत्व - ममत्व और रागादि भावों में सुखबुद्धि, उपादेयबुद्धि इतनी गहराई तक समाहित है कि अनेक विपरीत प्रसंगों के उपस्थित होने पर भी नहीं टूटती । ८० अपने पुत्र के दुर्व्यवहार से नाराज होकर सेठजी ने समाचार-पत्रों में छपवा दिया कि मेरे पुत्र से अब मेरा कोई संबंध नहीं है। उससे जो भी व्यक्ति लेन-देन करेगा, उसकी जिम्मेदारी उसी की है, मेरी नहीं है। फिर भी वे समय-समय पर इस बात पर दुःख प्रगट करते रहते हैं । कहते हैं कि मुझे इस बात का बहुत दुःख है कि मेरी संतान नालायक है। जब उन्हें यह याद दिलाया जाता है कि आपने तो समाचार-पत्रों में निकाल दिया कि उससे अब आपका कोई संबंध नहीं है; तब वे कहते हैं कि अखबार में निकाल देने से क्या होता है, आखिर है तो वह मेरा बेटा ही । यह एकत्वबुद्धि की पकड़ है, इतनी मजबूत है कि टूटती ही नहीं । अरे, भाई ! यह पकड़ तो तत्त्वाभ्यास से टूटती है। इसके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है। परपदार्थों और रागादि विकारीभावों में अनादिकालीन एकत्व, ममत्व, कर्तृत्व और भोक्तृत्वबुद्धिरूप अगृहीत मिथ्यादर्शन - ज्ञान - चारित्र ही वास्तविक रोग है, संसार का मूलकारण है। • छठवाँ प्रवचन पण्डित टोडरमलजी द्वारा लिखित मोक्षमार्गप्रकाशक नामक ग्रन्थराज में प्रतिपादित विषयवस्तु चर्चा चल रही है। इस ग्रन्थ का आधार कोई एक ग्रन्थ न होकर सम्पूर्ण जैन वाङ्गमय है। यह सम्पूर्ण जैन वाङ्गमय को अपने में समेट लेने का प्रयास था; पर खेद है यह ग्रन्थराज पूर्ण न हो सका । यदि यह पूर्ण हो गया होता तो यह कहने में कोई संकोच नहीं होता कि सम्पूर्ण जैन वाङ्गमय कहीं एक जगह सरल, सुबोध जनभाषा में देखना हो तो मोक्षमार्गप्रकाशक को देख लीजिये । अपूर्ण होने पर भी यह अपनी अपूर्वता के लिए प्रसिद्ध है । इसके चौथे अधिकार में समागत विषयवस्तु की चर्चा चल रही है; जिसमें अभीतक अगृहीत मिथ्यादर्शन का स्वरूप स्पष्ट किया जा चुका है। अब अगृहीत मिथ्याज्ञान और अगृहीत मिथ्याचारित्र की चर्चा करना है । यद्यपि छहढाला में समागत पंक्तियों में समागत अगृहीत मिथ्याज्ञान और अगृहीत मिथ्याचारित्र की सामान्य बात हुई है; तथापि उसकी जो विशेष चर्चा मोक्षमार्गप्रकाशक में है; उसे अब स्पष्ट करना है। अगृहीत मिथ्यादर्शन और अगृहीत मिथ्याज्ञान में मात्र श्रद्धान और ज्ञान का ही अन्तर है; क्योंकि देहादि को अपना मानना अगृहीत मिथ्यादर्शन और देहादि को ही अपना जानना अगृहीत मिथ्याज्ञान है। मुक्तिमार्ग में प्रयोजनभूत जीवादि तत्त्वार्थों का विपरीत श्रद्धान अगृहीत मिथ्यादर्शन है और उन्हीं का विपरीत ज्ञान अगृहीत मिथ्याज्ञान है। इसलिए जो विवेचन अगृहीत मिथ्यादर्शन के बारे में किया गया है; उसको अगृहीत मिथ्याज्ञान पर भी घटित कर लेना चाहिए। जिन लोगों को जानने और मानने में अथवा ज्ञान और श्रद्धान में अन्तर दिखाई नहीं देता; उन्हें तो ऐसा प्रश्न उठेगा ही कि इनमें क्या अन्तर है ?
SR No.009458
Book TitleMoksh Marg Prakashak ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages77
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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