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________________ मोक्षमार्गप्रकाशक का सार ध्यान रहे यहाँ जीवादि प्रयोजनभूत तत्त्वों के संदर्भ में सम्यक् एवं मिथ्या ज्ञान - श्रद्धान से ही सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि नाम पाता है; अन्य अप्रयोजनभूत लौकिक जानकारी से कोई लेना-देना नहीं है। सम्यग्दृष्टि का सभी ज्ञान सम्यग्ज्ञान है और मिथ्यादृष्टि का सभी ज्ञान मिथ्याज्ञान है; क्योंकि ज्ञान में सम्यक्पना सम्यक् श्रद्धान से आता है। ८२ पुत्रादि या किसी अन्य व्यक्ति के संकट में साथ न देने पर यदि कोई कहता है कि आज मैंने जान लिया है कि कोई किसी का नहीं है। यद्यपि उसका यह कथन तात्त्विक दृष्टि से सत्य ही है; तथापि वह द्वेष से कह रहा है; अतः वह सम्यग्ज्ञानी नहीं है। पुत्रादि की जरा-सी अनुकूलता दिख जाने पर उसे यह कहते भी देर नहीं लगेगी कि आखिर समय पर तो अपने लोग ही काम आते हैं। कहा तो यहाँ तक जाता है कि ह्र 'खोटा बेटा, खोटा दाम, समय पड़े पर आवे काम ।' सम्यग्ज्ञानी भी यही कहता है कि कोई किसी का नहीं है, तथापि उसका यह निर्णय तत्त्वज्ञान के आधार पर लिया गया अकाट्य निर्णय है; अतः उसका ज्ञान सम्यग्ज्ञान है। प्रयोजनभूत तत्त्व जो अपना त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा, उसमें एकत्वबुद्धि पूर्वक यह जानना कि 'यह मैं ही हूँ' इसका नाम सम्यग्ज्ञान है। अपने आत्मा को छोड़कर अन्य पदार्थों में एकत्व, ममत्व, कर्तृत्व और भोक्तृत्वबुद्धि पूर्वक यह जानना कि 'ये मैं हूँ' या 'ये मेरे हैं' 'मैं इनका कर्त्ता - भोक्ता हूँ' ह्र इसका नाम ही अगृहीत मिथ्याज्ञान है । ऐसे मिथ्यादर्शन एवं मिथ्याज्ञान सहित जो राग-द्वेषमय प्रवृत्ति पाई जाती है, पंचेन्द्रिय विषयों में प्रवृत्ति पाई जाती है; वह अगृहीत मिथ्याचारित्र है । सम्यग्दृष्टि धर्मात्माओं में पाई जानेवाली विषयों की प्रवृत्ति मिथ्याचारित्र नहीं कहलाती; उसे असंयम कहते हैं। अपने भगवान आत्मा को छोड़कर कोई भी पदार्थ न हमें इष्ट है और न अनिष्ट है, न कोई सुखदायक है और न कोई दुःखदायक है; वे तो मात्र छठवाँ प्रवचन ८३ हमारे ज्ञान के ज्ञेय हैं, मात्र जानने में आते हैं। जो भी परपदार्थ जानने में आते हैं, उनमें से हम कुछ को इष्ट जानकर, इष्ट मानकर, उनसे राग करने लगते हैं और कुछ पदार्थों को अनिष्ट जानकर, अनिष्ट मानकर उनसे द्वेष करने लगते हैं। उन परपदार्थों को इष्टानिष्ट मानना अगृहीत मिथ्यादर्शन है, इष्टानिष्ट जानना अगृहीत मिथ्याज्ञान है और इष्टानिष्ट जान-मान कर उनसे राग-द्वेष करना, पंचेन्द्रिय विषयों में प्रवृत्ति अगृहीत मिथ्याचारित्र है । जब हम किसी वस्तु को इष्ट मानने लगते हैं या किसी व्यक्ति को मित्र मानने लगते हैं तो उनसे सहज ही राग हो जाता है और जब हम किसी वस्तु को अनिष्ट मानने लगते हैं या किसी व्यक्ति को शत्रु मानने लगते हैं तो उनसे सहज ही द्वेष हो जाता है। विपरीत मान्यतापूर्वक किये गये ये राग-द्वेष ही अगृहीत मिथ्याचारित्र है। मिथ्यात्व के साथ रहनेवाली यह राग-द्वेष की परम्परा असीमित विस्तारवाली है; इसलिए अनन्त है, अनन्तानुबंधी है। जिन परपदार्थों को हम इष्ट जानते मानते हैं, उनसे राग करते हैं और उनसे द्वेष करनेवालों से द्वेष करने लगते हैं अथवा उनसे राग करनेवालों से राग करने लगते हैं। इसीप्रकार जिन परपदार्थों को हम अनिष्ट जानतेमानते हैं, उनसे द्वेष करते हैं और उनसे द्वेष करनेवालों से राग करने लगते हैं अथवा उनसे राग करनेवालों से द्वेष करने लगते हैं। इसप्रकार की परम्परा का कोई अन्त नहीं है; अतः यह अनंत है, अनंतानुबंधी है। यह बात तो लोक में प्रसिद्ध ही है कि 'शत्रु का शत्रु मित्र होता है। और मित्र का शत्रु शत्रु होता है। इसीप्रकार मित्र का मित्र मित्र होता है और शत्रु का मित्र शत्रु होता है। इसको नीति या राजनीति माननेवाले लोग अनंतानुबंधी कषायवाले लोग हैं; क्योंकि इस परम्परा को आप चाहे जितना बढ़ा सकते हैं। इसके अनुसार तो न केवल मित्र, वरन् शत्रु भी अनंत हो जाते हैं। जिसके मित्र व शत्रु अनंत हों, उसकी आकुलता भी अनंत ही होगी। ऐसे लोग अनंतदुःखी लोग हैं।
SR No.009458
Book TitleMoksh Marg Prakashak ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages77
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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