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________________ मोक्षमार्गप्रकाशक का सार ऐसे मिथ्यादृग - ज्ञान-चरण-वश, भ्रमत भरत दुःख जन्म-मरण । तातैं इनको तजिये सुजान, सुन, तिन संक्षेप कहूँ बखान ।। १ ।। जीवादि प्रयोजनभूत तत्त्व, सरधै तिन माहिं विपर्ययत्व । चेतन को है उपयोग रूप, बिनमूरत चिन्मूरत अनूप ॥। २ ।। पुद्गल - नभ-धर्म-अधर्म-काल, इनतैं न्यारी है जीव चाल । ताकों न जान विपरीत मान, करि करै देह में निज पिछान ।। ३ ।। मैं सुखी - दुःखी मैं रंक- राव, मेरे धन गृह गोधन प्रभाव । मेरे सुत तिय मैं सबल दीन, बेरूप सुभग मूरख प्रवीन ।।४ ।। तन उपजत अपनी उपज जान, तन नशत आपको नाश मान । रागादि प्रकट ये दुःख दैन, तिन ही को सेवत गिनत चैन ।। ५ ।। शुभ - अशुभ बंध के फल मँझार, रति- अरति करै निजपद विसार । आतमहित हेतु विराग ज्ञान, ते लखें आपको कष्टदान ।। ६ ।। रोकी न चाह निज शक्ति खोय, शिवरूप निराकुलता न जोय । याही प्रतीतिजुत कछुक ज्ञान, सो दुःखदायक अज्ञान जान ।।७।। इन जुत विषयनि में जो प्रवृत्त, ताको जानों मिथ्याचरित्त । यों मिथ्यात्वादि निसर्ग जेह, अब जे गृहीत सुनिये सु तेह ॥८ ॥ इस जीव ने प्रथम ढाल में निरूपित संसार में परिभ्रमण करते हुए जन्म-मरण के जो अनन्त दुःख भोगे हैं, वे मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र के वश होकर ही भोगे हैं। इसलिए इन मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र को अच्छी तरह जानकर छोड़ देना चाहिए। तुम ध्यान से सुनो! मैं उसका वर्णन संक्षेप में करता हूँ। ७८ अगृहीत मिथ्यादृष्टि जीव जीवादि प्रयोजनभूत तत्त्वों के संबंध में विपरीत श्रद्धान करता है। चेतन जीव का स्वरूप उपयोगरूप है, अमूर्तिक है और यह चैतन्यमूर्ति आत्मा अनुपम पदार्थ है। इस आत्मा का स्वभाव पुद्गल, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश और काल से भिन्न है। यह अगृहीत मिथ्यादृष्टि जीव उक्त बात को तो जानता नहीं है और पाँचवाँ प्रवचन ७९ इसके विपरीत जीव और पुद्गलमयी देह को एक ही मानता हुआ देह से ही अपनी पहिचान करता है, कराता है। अनुकूल संयोग मिलने पर स्वयं को सुखी मानता है, प्रतिकूल संयोगों के मिलने पर दुःखी मानता है, बाह्य संपत्ति की कमी से अपने को रंक (गरीब) और इसके होने पर स्वयं को रावराजा मानने लगता है। कहता है कि मेरे पास अपार धन है, विशाल घर है, गाय-भैंस आदि हैं और मेरा प्रभाव भी सर्वत्र है, मेरे पुत्र हैं, पत्नी है, मैं बलवान हूँ, सुन्दर हूँ और प्रवीण हूँ तथा कभी कहने लगता है कि मैं बलहीन हूँ, दीन-हीन हूँ, कुरूप हूँ और मूर्ख हूँ । इस अगृहीत मिथ्यादृष्टि जीव की उक्त मान्यतायें सभी संयोगों पर आधारित हैं। इसके आगे की बात यह है कि अगृहीत मिथ्यादृष्टि जीव शरीर उत्पन्न होने पर अपनी उत्पत्ति और शरीर के नष्ट होने पर अपना नाश मानता है। तात्पर्य यह है कि पौद्गलिक शरीर और अपने आत्मा को एक माननेवाला यह अगृहीत मिथ्यादृष्टि जीव न तो जीव को सही रूप में जानता है और न अजीव को । इसप्रकार यह इसकी जीव और अजीव तत्त्व संबंधी भूल है। आत्मा के विकारी भावरूप रागादि भाव हैं, जो प्रगटरूप से दुख देनेवाले हैं; उनका ही सेवन करता है और उनसे स्वयं को सुखी मानता है ह्न यह इस अगृहीत मिथ्यादृष्टि जीव की आस्रव तत्त्व संबंधी भूल है। अपने सुखस्वरूप रूप को भूलकर शुभबंध के फल से प्रीति करता है। और अशुभबंध के फल में अप्रीति करता है। यह इसकी बंधतत्त्व के संबंध में की गई भूल है। जो ज्ञान-वैराग्य आत्मा का हित करनेवाले हैं; उन्हें स्वयं को कष्ट देनेवाला मानता है। यह इसकी संवर तत्त्व संबंधी भूल है। स्वयं की शक्ति को भूलकर, खोकर इच्छाओं को न रोकना ही इसकी
SR No.009458
Book TitleMoksh Marg Prakashak ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages77
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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