SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 39
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मोक्षमार्गप्रकाशक का सार यह अगृहीत मिथ्यादृष्टि जीव आत्मस्वभाव को भूलकर शुभबंध के फल में राग करता है और अशुभबंध के फल में द्वेष करता है। इसप्रकार राग-द्वेष करता हुआ निरन्तर दुःखी रहता है। कर्मफलचेतना अर्थात् कर्मों के उदय को भोगते रहना ही इसकी नियति है। बंधतत्त्व की भूल के संबंध में पण्डितजी लिखते हैं ह्र "तथा इन आस्रवभावों से ज्ञानावरणादि कर्मों का बंध होता है। उनका उदय होने पर ज्ञान-दर्शन की हीनता होना, मिथ्यात्व-कषायरूप परिणमन होना, चाहा हुआ न होना, सुख-दुःख का कारण मिलना, शरीरसंयोग रहना, गति-जाति-शरीरादिक का उत्पन्न होना, नीच-उच्च कुल का पाना होता है। इनके होने में मूलकारण कर्म है, उसे यह पहिचानता नहीं है, क्योंकि वह सूक्ष्म है, इसे दिखायी नहीं देता; तथा वह इसको इन कार्यों का कर्त्ता दिखायी नहीं देता; इसलिए इनके होने में या तो अपने को कर्ता मानता है या किसी और को कर्त्ता मानता है। तथा अपना या अन्य का कर्तापना भासित न हो तो मूढ़ होकर भवितव्य को मानता है। इसप्रकार बन्धतत्त्व का अयथार्थ ज्ञान होने पर अयथार्थ श्रद्धान होता है।" संवर और निर्जरासंबंधी भूल को स्पष्ट करते हुए पण्डितजी लिखते हैं "तथा अनादि से इस जीव को आस्रवभाव ही हुआ है, संवर कभी नहीं हुआ; इसलिए संवर का होना भासित नहीं होता। संवर होने पर सुख होता है, वह भासित नहीं होता । संवर से आगामी काल में दुःख नहीं होगा, वह भासित नहीं होता । इसलिए आस्रव का तो संवर करता नहीं है और उन अन्य पदार्थों को दुःखदायक मानता है, उन्हीं के न होने का उपाय किया करता है; परन्तु वे अपने आधीन नहीं हैं। वृथा ही खेदखिन्न होता है। १. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ-८३ पाँचवाँ प्रवचन तथा बन्ध का एकदेश अभाव होना सो निर्जरा है। जो बन्ध को यथार्थ नहीं पहिचाने उसे निर्जरा का यथार्थ श्रद्धान कैसे हो ? जिसप्रकार भक्षण किये हुए विष आदिक से दुःख का होना न जाने तो उसे नष्ट करने के उपाय को कैसे भला जाने ? उसीप्रकार बन्धनरूप किये कर्मों से दुःख होना न जाने तो उनकी निर्जरा के उपाय को कैसे भला जाने ?" सम्पूर्ण कर्मबंध का और सभी प्रकार के लौकिक सुख-दुःखों का अभाव मोक्ष है। अगृहीत मिथ्यादृष्टि ऐसे मोक्ष को तो पहचानता नहीं है और लौकिक अनुकूलताओं में ही सुख की खोज किया करता है। मोक्षमार्गप्रकाशक के १९ पृष्ठों के चतुर्थ अधिकार में समागत अगृहीत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र संबंधी सम्पूर्ण विषयवस्तु को पण्डित दौलतरामजी ने छहढाला की दूसरी ढाल में मात्र ८ छन्दों अर्थात् १६ पंक्तियों में समाहित कर लिया है। थोड़े में बहुत कह देने की शक्ति अर्थात् भाषा की समासशक्ति जैसी दौलतरामजी में है, वैसी अन्यत्र देखना दुर्लभ है। पण्डित दौलतरामजी ने अपनी बात पद्य में रखी; परन्तु पण्डित टोडरमलजी ने इस बात के लिए गद्य को चुना; क्योंकि वे अपनी बात को तर्क की कसौटी पर कस कर प्रस्तुत करना चाहते थे, आगम प्रमाणों के साथ प्रस्तुत करना चाहते थे, वे अपनी बात को उदाहरणों के माध्यम से स्पष्ट करना चाहते थे; जो गद्य के माध्यम से ही संभव था; क्योंकि पद्य तों, उदाहरणों और आगम के उद्धरणों के भार को बर्दाश्त नहीं कर सकता। पद्य में छन्द, अलंकार, अक्षर, मात्रा आदि न जाने कितनी सीमाओं में बंधना पड़ता है; उसमें खुलकर खेलने की आजादी नहीं है। यही कारण है कि पण्डित टोडरमलजी ने गद्य में लिखा। पण्डित दौलतरामजी की वे पंक्तियाँ इसप्रकार हैं ह्र १. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ-८३
SR No.009458
Book TitleMoksh Marg Prakashak ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages77
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy