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________________ २४ गुणस्थान- प्रकरण अर्थात् रहित हुए, किन्तु आसन्न अर्थात् जीव के प्रदेशों के साथ जिनका एक क्षेत्रावगाह है, तथा जिनका आकार अनिर्दिष्ट अर्थात् कहा नहीं जा सकता है, इस प्रकार का पुद्गल द्रव्य बहुलता से ग्रहण को प्राप्त होता है ।। २० ।। इस सूत्रोक्त कारण से अगृहीतग्रहण का काल अल्प होता है। इसप्रकार इस सबका नाम नोकर्मपुद्गलपरिवर्तन है। जिसप्रकार से नोकर्मपुद्गलपरिवर्तन कहा है, उसीप्रकार से कर्मपुद्गलपरिवर्तन भी कहना चाहिए । विशेष बात यह है कि नोकर्मपुद्गल, आहारवर्गणा से आते हैं । किन्तु कर्मपुद्गल, कार्मणवर्गणा से आते हैं। नोकर्मपुद्गलों के मिश्रग्रहण का काल तृतीय समय में ही होता है; किन्तु कर्मपुद्गलों के मिश्रग्रहण का काल तीन समय अधिक आवलीप्रमाण काल के व्यतीत होने पर होता है; क्योंकि, जो बन्धावली से अतीत हैं, एक समय अधिक आवली के द्वारा अपकर्षण के वश से जो उदय को प्राप्त हुए हैं और दो समय अधिक आवली के रहने पर जो अकर्मभाव को प्राप्त हु हैं, ऐसे कर्मपुद्गलों का तीन समय अधिक आवली के द्वारा कर्मपर्याय से परिणमन होकर अन्य पुद्गलों के साथ जीव में बंध को प्राप्त होना पाया जाता है। विशेष बात यह है कि दोनों ही पुद्गलपरिवर्तनों में प्रथम समय में तद्भवस्थ अर्थात् उत्पन्न हुए, तथा प्रथम समय में ही आहारक हुए सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्त जीव के द्वारा जघन्य उपपादयोग से गृहीत कर्म और नोकर्मद्रव्य को ग्रहण करके आदि अर्थात परिवर्तन का प्रारंभ करना चाहिए । यहाँ पर उपयुक्त गाथा इस प्रकार है - गाथार्थ - कर्मग्रहण के समय में जीव अपने गुणांश प्रत्ययों से, अर्थात् स्वयोग्य बंधकारणों से, जीवों से अनन्तगुणें कर्मों को अपने सर्व प्रदेशों में उत्पादन करता है ।। २१ ।। 13 षट्खण्डागम सूत्र - ४ इस प्रकार द्रव्यपुद्गलपरिवर्तन समाप्त हुआ । क्षेत्र, काल, भव और भावपुद्गलपरिवर्तनों को कहलाकर ग्रहण करा देना चाहिए। उन परिवर्तनों की (संक्षेप से अर्थ-प्रतिपादक) गाथाएँ इसप्रकार हैं - गाथार्थ - १. इस जीव ने इस पुद्गलपरिवर्तनरूप संसार में एकएक करके पुनः पुनः अनन्तबार सम्पूर्ण पुद्गल भोग करके छोड़े हैं ।। २२ ।। २. इस समस्त लोकरूप क्षेत्र में एक प्रदेश भी ऐसा नहीं है, जिसे कि क्षेत्रपरिवर्तनरूप संसार में क्रमशः भ्रमण करते हुए बहुत बार नाना अवगाहनाओं से इस जीव ने न छुआ हो ।। २३ ।। ३. कालपरिवर्तनरूप संसार में भ्रमण करता हुआ यह जीव, उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के सर्व समयों की आवलियों में निरंतर बहुत बार उत्पन्न हुआ और मरा है ।। २४ ।। ४. भवपरिवर्तनरूप संसार में भ्रमण करता हुआ यह जीव, मिथ्यात्व के वश से जघन्य नारकायु से लगाकर (तिर्यंच, मनुष्य और ) उपरिम ग्रैवेयक तक की भवस्थिति को बहुत बार प्राप्त हो चुका है ।। २५ ।। ५. यह जीव मिथ्यात्व के वशीभूत होकर भावपरिवर्तनरूप संसार में परिभ्रमण करता हुआ सम्पूर्ण प्रकृतियों के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बंधस्थानों को अनेक बार प्राप्त हुआ है ।। २६ ।। जिन - वचनों को नहीं पा करके इस जीव ने अतीत काल में पाँचों ही परिवर्तन पुनः पुनः करके अनन्त बार परिवर्तित किये हैं ।। २७ ।। जिसप्रकार कोई पुरुष नाना प्रकार के वस्त्रों के परिवर्तन को ग्रहण करता है अर्थात् उतारता है और पहनता है, उसीप्रकार से यह जीव भी पुद्गलपरिवर्तन काल में नाना शरीरों को छोड़ता और ग्रहण करता है ।। २८ ।।
SR No.009451
Book TitleGunsthan Prakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Shastri, Yashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2014
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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