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________________ गागर में सागर ३५ यह बात सत्य होने पर भी कि हम अनादि से मिथ्यात्व की जकड़ में हैं, यह बात भी तो है कि जिस मिथ्यात्व की जकड़ में हम हैं, वह स्वयं ही अनादि का नहीं है । वह तो प्रतिसमय बदलता रहता है। वर्तमान मिथ्यात्व की सत्ता तो मात्र एक समय की ही है। अतः समस्या मात्र एक समय के मिथ्यात्व के नाश तक ही सीमित है। उसे नाश करने के लिए भी हमें कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वह तो अगले समय में स्वयं ही समाप्त हो जानेवाला है। आवश्यकता मात्र इतनी है कि हम अगले समय नया मिथ्यात्व उत्पन्न न होने दें। इसके लिए भी उसमें कुछ नहीं करना है, मात्र अपने को जानना है, पहिचानना है । सब-कुछ अपने में ही करना है, पर में कुछ भी नहीं करना है। स्वयं में सिमटना ही सबसे बड़ा कार्य है, मिथ्यात्व के नाश का एकमात्र उपाय है । मिथ्यात्व के नाश की, अज्ञान के नाश की, असंयम के नाश की यही एकमात्र कला है । जिसे यह कला प्राप्त हो गई, उसे अनादिकालीन मिथ्यात्व के नाश की कोई समस्या नहीं रह जाती है। __वास्तव में बात यह है कि दुखों के प्रभाव के लिए, अतीन्द्रिय आनन्द की प्राप्ति के लिए परं में कुछ करना ही नहीं है, सब-कुछ अपने में ही करना है। बस अपनी मिथ्या मान्यता को तोड़ना है, कर्म की कड़ियाँ अपने आप टूटती चली जावेंगी। मिथ्या मान्यता टूटते ही मिथ्याभाव भी समाप्त हो जावेंगे और संसार का भटकना भी समाप्त हो जायगा। पाखिर कितना आसान है यह काम, कितना आसान है धर्म, जिसे लोगों ने अपनी ही कल्पना से असंभव बना रखा है। सी विचित्र विडम्बना है कि स्वाधीन सरलतम अपने हित का काम हमें कठिन लगता है और सर्वथा पराधीन परिणति हमें सरल लगती है। परपदार्थों का संग्रह-विग्रह पराधीन होने से कठिन है, पर हमें वह सरल दिखता है। ___ अज्ञान की महिमा भी अपरंपार है । परपदार्थों का सर्वथा असंभव परिणमन इसे सरल लगता है और एकदम सहज स्वाधीन निजात्मा को अपना मानना, जानना कठिन लगता है। अपने प्रात्मा के अनुभव करने का कार्य कठिन लग रहा है। क्या कहें इसे ? अज्ञान की बलिहारी है।
SR No.009449
Book TitleGagar me Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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