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________________ ३४ गाथा ५६ पर प्रवचन समय की है, क्योंकि कोई भी पर्याय एक समय से अधिक टिक ही नहीं सकती। हमने अनादिकालीन कह-कह कर उसकी महिमा अपने चित्त में इतनी बढ़ा रखी है कि उसे तोड़ने की हमारी हिम्मत ही नहीं पड़ती। पर गंभीरता से विचार करें तो इसमें कुछ दम नहीं है । जैसे - चावल की प्रान्तबन्दी हो अर्थात् एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में चावल ले जाना मना हो और हम ले जाना चाहते हों। मान लो कि हमें मध्यप्रदेश से उत्तरप्रदेश में चावल ले जाना है। चावल मध्यप्रदेश के छत्तीसगढ़ एरिपा से खरीदना है और उत्तरप्रदेश के सहारनपुर जिले में ले जाना है। अब हम विचार करने लगे कि कहाँ छत्तीसगढ़ और कहाँ सहारनपुर? हजारों किलोमीटर की दूरी है । कैसे होगा यह सब ? हजारों किलोमीटर तक पुलिस की आँखों से कैसे बचेंगे? पर समस्या हजारों किलोमीटर की है ही नहीं, क्योंकि मध्यप्रदेश का चावल मध्यप्रदेश में तो कहीं भी ले ही जाया जा सकता है। इसीप्रकार उत्तरप्रदेश का चावल भी उत्तरप्रदेश में कहीं भी ले जाया जा सकता है। दोनों की सीमा जब लगी हुई है तो फिर दूरी पाड़े बाल बराबर भी तो नहीं है, मात्र बीच में सीमा-रेखा ही तो है। रेखा कहते ही उसे हैं, जिसमें लम्बाई तो हो, पर चौड़ाई न हो। वास्तविक समस्या हजारों किलोमीटर की नहीं है, मात्र सीमारेखा पार करने की है। इसे हमने किलोमीटरों में फैलाकर समस्या को स्वयं ही उलझा लिया है। हम स्वयं ही आतंकित हो गये हैं, हताश हो गये हैं। ठीक यही बात आजतक मिथ्यात्व के नाश के बारे में भी हुई है। मात्र एक समय की अवस्थारूप मिथ्यात्व को अनादिकालीन मानकर हम अातंकित हो गये हैं, निराश हो गये हैं; पर निराश होने की कोई बात ही नहीं है। हमें वर्तमान एक समय मात्र के मिथ्यात्व से ही लड़ना है, निबटना है। प्रश्न :-आपने ही तो कहा था कि हमने इस मिथ्यात्व के वश. होकर अनादिकाल से आजतक अनन्त दु:ख उठाए हैं ? उत्तर :- हां, कहा था, अवश्य कहा था। पर उसका आशय तो मात्र इतना ही था कि हम अनादि से आजतक मिथ्यात्व को पकड़ में हैं जकड़ में हैं और अनन्त दुःख भोग रहे हैं । यह बात असत्य भी नहीं है ।
SR No.009449
Book TitleGagar me Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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