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________________ चौदह गुणस्थान भावार्थ - छठवें गुणस्थानवर्ती साधु प्रत्याख्यानावरण कषायों के उपशम से सर्व परिग्रह रहित निर्ग्रथ है। हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्म व परिग्रह - इन पाँच पापों का पूर्ण त्यागी है। पाँच इन्द्रिय व मन सम्बन्धी तथा त्रस स्थावर के वध सम्बन्धी, ऐसे बारह प्रकार का अविरत भाव, जिसके परिणामों से चला गया है, जो अन्तरंग में शुद्ध आत्मा के रमण में बर्तता है, जिसका मतिज्ञान व श्रुतज्ञान सम्यग्दर्शन सहित शुद्ध है व जो निरन्तर धर्म का ध्यान करता है। ३२ वह वन्न भावो, वय गहनं भाव संजदो सुधो । (२९) वैरागं संसार सरीरं, भोगं तिजंति भोग उवभोगं । । ६८६ ।। अन्वयार्थ - ( अवहि भावो उवन्नो) जिसको अवधिज्ञान उत्पन्न हो सकता है (वय गहनं भाव संजुदो सुधो) जो महाव्रतों को ग्रहण करता हुआ शुद्ध भाव संयमी है (वैरागं संसार सरीरं भोगं) जो संसार, शरीर तथा पंचेन्द्रिय के भोगों से विरक्त है ( भोग उपभोगं तिजंति) अतएव सर्व भोग व उपभोगों का त्यागी है। भावार्थ - यह महाव्रती साधु व्यवहार में पाँच महाव्रतों को पालता हुआ अन्तरंग में भावों की शुद्धतापूर्वक स्वरूपाचरण चारित्र में लवलीन रहता है। जैसा इसका भेष है, वैसा ही इसका भाव है। यह संसार का लोभ त्यागकर मुक्ति का प्रेमी है। शरीर को अपवित्र नाशवंत जानकर आत्मा को ऐसे शरीर के वास से छुड़ाना चाहता है । इसने इन्द्रियों के भोगों को अतृप्तिकारी जानकर उनका सम्बन्ध त्याग दिया है । ऐसे पूर्ण वीतरागी साधु के ही अवधिज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होकर अवधिज्ञान की प्राप्ति हो सकती है। संमत्त सुध चरनं, अवहिं चिंतेइ सुध ससरूवं । (३०) अप्पा परमप्पानं, परमप्पा निम्मलं सुधं ।।६८७ ।। अन्वयार्थ - ( संमत्त सुध चरनं) यह साधु शुद्ध सम्यग्दर्शन के आचरण को करने वाला है (अवहिं चिंतेइ सुध ससरूवं) अवधिज्ञान का चिंतन (18) प्रमत्तविरत गुणस्थान ३३ करने वाला है तथा शुद्ध आत्मा के स्वरूप का अनुभव करने वाला है। ( अप्पा परमप्पानं) आत्मा को परमात्मा रूप जानकर (परमप्पा निम्मलं सुधं) निर्मल शुद्ध परमात्मा का अनुभव करता है। भावार्थ - यह साधु निश्चय सम्यग्दर्शन से विभूषित होता है। कभी अवसर पाकर अवधिज्ञान को जोड़कर पूर्व व आगामी भवों की बातें दूसरों को बता देता है। शुद्ध आत्मस्वरूप का भले प्रकार अनुभव करने वाला है, अपने आत्मिक रस में लीन है। ग्रंथ बाहिर भिंतर, मुक्कं संसार सरनि सभावं । (३१) महावय गुन धरनं, मूलगुनं धरन्ति सुध भावेन ॥ ६८८ ।। अन्वयार्थ - (संसार सरनि सभावं) संसार के मार्ग में भ्रमण कराने वाले (बाहिर भिंतर ग्रंथं मुक्कं ) बाहरी - भीतरी परिग्रह को त्यागकर (महावय गुन धरनं) महाव्रतों के गुणों को धरने वाले हैं तथा (सुध भावेन मूल गुनं धरन्ति) शुद्ध भावों से मूलगुणों को पालते हैं। भावार्थ - यह साधु संसार से पूर्ण विरक्त हैं, तब ही संसार के कारण ऐसे ग्रन्थ अर्थात् परिग्रह को त्यागकर निर्ग्रथ हो गए हैं। मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा और स्त्री, पुरुष, नपुंसक वेद यह चौदह प्रकार के अंतरंग परिग्रह हैं। क्षेत्र, मकान, गोधन, धान्य, चाँदी, सोना, दासी, दास, कपड़े, बर्तन - यह दस प्रकार के बाहरी परिग्रह हैं। ऐसे २४ प्रकार के परिग्रह के त्यागी हैं तथा शुद्ध भावों से पाँच महाव्रतों को आदि लेकर अट्ठाईस मूलगुणों को पालने वाले हैं। पाँच महाव्रत + पाँच समिति + पाँच इन्द्रिय दमन + छह आवश्यक कर्म + स्नान त्याग + दंतधावन त्याग + वस्त्र त्याग + भूमि शयन + खड़े भोजन + एक बार भोजन + केशलोंच ये अट्ठाईस मूलगुण हैं। - दंसन दह विहि भेयं, न्यानं पंच भेय उवएसं । (३२) तेरह विहस्य चरनं, न्यान सहावेन महावयं हुंति ॥ ६८९ ।।
SR No.009448
Book TitleChaudaha Gunsthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad, Yashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages27
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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