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________________ चौदह गुणस्थान ३० किसी लौकिक फल की इच्छा नहीं रखता है। उसका सर्व व्रत, उपवास, खानपानादि आचरण शुद्ध भावों के साथ मायाशल्य से रहित होता है। रत्नत्रय धर्ममयी शुद्ध आत्मा का वह प्रेमी होता है और मोक्ष के हेतु से आत्मध्यान का अभ्यास बढ़ाता रहता है। अप्पा अप्पसरावं, विरइ मिच्छात दोस संकाई । (२६) अवयास सुध धरनं, मन रोहो निय अप्पानं । । ६८३ ।। अन्वयार्थ - (अप्पा अप्प सरुवं) आत्मा को आत्मिक स्वरूपमय निश्चय करना (विरइ मिच्छात दोस संकाई) मिथ्यात्वादि दोष व शंका आदि से विरक्त रहना (अवयास सुध धरनं) अपने आत्मा के क्षेत्र को संकल्प - विकल्पों से रहित शुद्ध धारण करना (मनरोहो निय अप्पानं ) मन को रोककर अपने आत्मा को अनुभवना यह देशव्रती का मुख्य कार्य है। भावार्थ देशव्रती श्रावक जब बाहर से बारह व्रतों का साधन करता है, तब अंतरंग में वह अपने भीतर से सर्व रागद्वेष को व सर्व शंकादि दोषों को दूर कर शुद्ध आत्मा का ध्यान करने का दृढ़ता अभ्यास करता है। मन वयन काय सुधं, उक्तं सभाव निस्च जिनवयनं । (२७) दत्तं पत्त विसेषं, एको उद्देस देशव्रत ग्रहनं । । ६८४ ॥ अन्वयार्थ - (मन वयन काय सुधं) मन, वचन, काय की शुद्धतापूर्वक (उक्तं सभाव निस्च जिनवयनं) जो जिन वचनों के कहे अनुसार आत्मा का स्वभाव निश्चय करके भावना करता है (दत्तं पत्त विसेषं) जो दातार भी है व पात्र भी है (एको उद्देस देसव्रत ग्रहनं) ऐसा श्रावक एकदेश व्रतों का धारी है। भावार्थ - पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक जिन वचनों को भले प्रकार श्रद्धापूर्वक मानने वाला है अर्थात् जिनवाक्यानुसार स्वतत्त्व - परतत्त्व को जानकर निश्चय करने वाला है। पाँच अणुव्रत व सात शीलों को पालता है। ग्यारह प्रतिमा द्वारा चारित्र की उन्नति व आत्मानुभव की उन्नति करता (17) देशविरत गुणस्थान ३१ है । यह श्रावक जहाँ तक परिग्रह का स्वामी है, आरंभ कार्य में लीन है, वहाँ तक पात्रों को दान भी देता है। इसलिए दातार है तथा यह मध्यम पात्र है, दान लेने के योग्य है। पहली प्रतिमा से लेकर छठी प्रतिमा तक मध्यम पात्रों में जघन्य पात्र है। सातवीं, आठवीं, नौवीं प्रतिमाधारी मध्यम में मध्यम पात्र हैं। दसवीं, ग्यारहवी प्रतिमाधारी मध्यम में उत्तम पात्र है । आरंभत्यागी श्रावक से क्षुल्लक ऐलक तक मुख्यता से ज्ञानदान व अभयदान करते हैं। शेष सर्व श्रावक चारों ही प्रकार का दान करते हैं। श्री गोम्मटसार में इस गुणस्थान का स्वरूप यह है - " जो जिनेन्द्र देव में व उनके वाक्यों में अपूर्व श्रद्धा को रखने वाला है, त्रस की हिंसा से विरक्त है, उसी समय स्थावर की हिंसा से विरक्त नहीं है; इसलिए उसको विरताविरत कहते हैं। यह श्रावक संकल्पी हिंसा का त्यागी है। आरंभी हिंसा का त्यागी सातवीं तक नहीं है। आगे आरम्भी का भी त्यागी है। जहाँ तक वस्त्र का पूर्ण त्याग नहीं है, वहाँ तक पूर्ण आरम्भी हिंसा का त्याग नहीं है। इसीलिए इसको देशव्रती कहते हैं।" ... ६ प्रमत्तविरत गुणस्थान अविरय भाव संजुत्तं, अनुवय भाव सुध संधरनं । (२८) धम्मं ज्ञानं झायदि, मतिसुत न्यान संजुदो सुधो ।।६८५ ।। अन्वयार्थ - (अविरय भाव संजुत्तं) प्रमत्तविरत गुणस्थानवर्ती साधु अविरत भाव से विरक्त हैं महाव्रती हैं (अनुवय भाव सुध संधरनं) बाहरी व्रतों के अनुकूल शुद्ध अहिंसक व निर्ममत्व भाव को भले प्रकार धरने वाला है । (सुधो मतिस्रुत न्यान संजुदो ) शुद्ध मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान को रखता है (धम्मं झानं झायदि) और धर्मध्यान को ध्याता है।
SR No.009448
Book TitleChaudaha Gunsthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad, Yashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2012
Total Pages27
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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