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________________ बोधिदुर्लभभावना : एक अनुशीलन नर देह उत्तम देश पूरण आयु शुभ आजीविका। दुर्वासना की मंदता परिवार की अनुकूलता॥ सत् सज्जनों की संगती सद्धर्म की आराधना। . है उत्तरोत्तर महादुर्लभ आत्मा की साधना॥ षद्रव्यमयी इस लोक में न तो ज्ञेयरूप संयोग ही दुर्लभ हैं और न संयोगीभावरूप आस्रवभाव; क्योंकि हम सभी को ये तो अनन्तों बार प्राप्त हो चुके हैं और यदि अब भी अपने को नहीं जाना, नहीं पहिचाना तो भविष्य में भी मिलते रहेंगे। दुर्लभ तो एकमात्र अपने को जानना है, पहिचानना है, अपने में ही जमना है, रमना है; क्योंकि अनादिकाल से अबतक और सब-कुछ मिला, पर सहीरूप में हम अपने को पहिचान नहीं सके हैं, जान नहीं सके हैं। यदि हमने अपने को सहीरूप में जान लिया होता, पहिचान लिया होता तो अबतक इस लोक में भटकते ही न रहते, अपितु लोकाग्र में विद्यमान सिद्धशिला में विराजमान होते; मिथ्यात्व, अज्ञान और असंयम का अभाव कर अनंत सुखी हो गये होते; अनन्तदर्शन और अनन्तवीर्य के धनी हो गये होते; अतीन्द्रियानन्दस्वरूप सिद्धशिला को प्राप्त हो गये होते। ___ हमारी यह वर्तमान दुर्दशा, दुःखरूप दशा एकमात्र अपने को नहीं पहिचान पाने के कारण ही हो रही है, नहीं जान पाने के कारण हो रही है; अत: इस दुर्लभ अवसर का उपयोग, नरभव का एकमात्र सदुपयोग, अपने को जाननेपहिचानने के महादुर्लभ कार्य कर लेने में ही है। ___ अपने को जानना, पहिचानना एवं अपने में लीन हो जाना ही बोधि है - दर्शन-ज्ञान-चारित्र है। यह दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप बोधि ही इस जगत में दुर्लभ
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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