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________________ बारहभावना : एक अनुशीलन १४९ जब मैं स्वयं ही ज्ञेय हूँ जब मैं स्वयं ही ज्ञान हूँ। जब मैं स्वयं ही ध्येय हूँ जब मैं स्वयं ही ध्यान हूँ । जब मैं स्वयं आराध्य हूँ जब मैं स्वयं आराधना । जब मैं स्वयं ही साध्य हूँ जब मैं स्वयं ही साधना ॥३॥ पर एक बात यह भी तो है कि जब मैं स्वयं ही ज्ञेय हूँ और मैं स्वयं ही ज्ञान हूँ; जब मैं स्वयं ही ध्येय हूँ और मैं स्वयं ही ध्यान भी हूँ; इसीप्रकार जब मैं स्वयं ही आराध्य हूँ और मैं स्वयं ही आराधना भी हूँ तथा जब मैं स्वयं ही साध्य हूँ और साधना भी मैं स्वयं ही हूँ। जब जानना पहिचानना निज साधना आराधना । ही बोधि है तो सुलभ ही है बोधि की आराधना ॥ निज तत्त्व को पहिचानना ही भावना का सार है। ध्रुवधाम की आराधना आराधना . का सार है ॥४॥ जब निज को जानना, पहिचानना एवं निज की साधना, आराधना ही बोधि है; तो फिर बोधि की आराधना दुर्लभ कैसे हो सकती है? सुलभ ही समझना चाहिए। अत: बोधिदुर्लभभावना का सार निजतत्त्व को पहिचानना ही है और ध्रुवधाम निज भगवान आत्मा की आराधना ही आराधना का सार है। । वास्तविक कर्त्तव्य सामाजिक संगठन और शान्ति बनाए रखना और सामाजिक रूढ़ियों से मुक्त प्रगतिशील समाज की स्थापना ही तो इस बहुमूल्य नरभव की सार्थकता नहीं है, इस मानव जीवन में तो आध्यात्मिक सत्य को खोजकर, पाकर, आत्मिक शान्ति प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त करना ही वास्तविक कर्तव्य है। - सत्य की खोज, पृष्ठ २५२
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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