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________________ १३० निर्जराभावना : एक अनुशीलन तप के द्वारा पुराने कर्मों का खिर जाना और ज्ञान के बल से नये कर्मों का नहीं आना ही निर्जरा है, जो कि सुख देनेवाली है और संसार के कारणों से पार उतारनेवाली, छुड़ानेवाली है - ऐसा जानना चाहिए। ज्यों सरवर जल रुका, सूखता तपन पड़े भारी; संवर रोके कर्म निर्जरा है सोखनहारी । उदय भोग सविपाक समय पक जाय आम डाली; दूजी है अविपाक पकावै पाल विषै माली ॥ पहली सबके होय नहीं कुछ सरे काम तेरा; दूजी करे जु उद्यम करके मिटे जगत फेरा । संवर सहित करो तप प्राणी मिले मुकति रानी; इस दुलहिन की यही सहेली जाने सब ज्ञानी ॥ जिसप्रकार सरोवर का रुका हुआ पानी भारी धूप से सूखता है; उसीप्रकार संवर नये कर्मों को आने से रोकता है और निर्जरा पुराने कर्मों को सोखती है। जिसप्रकार आम का फल समय आने पर डाली पर स्वयं पक जाता है, पर कभी-कभी माली उसे पाल में डालकर समय के पूर्व भी पका लेता है; उसीप्रकार कर्मों का स्वसमयानुसार उदय में आकर खिर जाना सविपाकनिर्जरा है और तप द्वारा उदयकाल के पहिले ही खिरा देना अविपाकनिर्जरा है। ___पहली सविपाकनिर्जरा तो ज्ञानी-अज्ञानी सभी के सदाकाल होती ही रहती है; उससे किसी का कुछ कार्य सिद्ध नहीं होता। तात्पर्य यह है कि वह आत्महित में रंचमात्र भी कार्यकारी नहीं है। दूसरी अविपाकनिर्जरा ज्ञानीजनों द्वारा उद्यमपूर्वक की जाती है और उसी से संसार परिभ्रमण मिटता है। इसलिए हे प्राणियों! संवर सहित तप करो, उससे तुम्हें मुक्तिरानी प्राप्त होगी; क्योंकि मुक्तिरूपी दुलहिन की सहेली अविपाकनिर्जरा ही है - यह सभी ज्ञानीजन भलीभाँति जानते हैं। तात्पर्य यह है कि मोक्ष की प्राप्ति अविपाकनिर्जरा से ही होती है। १. कविवर मंगतरायजी कृत बारह भावना
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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