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________________ बारहभावना : एक अनुशीलन १२९ कर्म की शक्ति को क्षीण करने में समर्थ बहिरंग और अंतरंग तपों द्वारा वृद्धि को प्राप्त शुद्धोपयोग ही भावनिर्जरा है; तथा शुद्धोपयोग के प्रभाव से नीरस हुए उपात्त कर्मों का एकदेश क्षय द्रव्यनिर्जरा है।" ____ आचार्य अमृतचन्द्र के इस कथन में शुद्धोपयोग को ही भावनिर्जरा कहा गया है तथा तप को उसका हेतु बताया गया है एवं द्रव्यनिर्जरा का हेतु शुद्धोपयोगरूप भावनिर्जरा को कहा गया है। __उक्त सम्पूर्ण कथन पर दृष्टि डालने पर यह बात अत्यन्त स्पष्ट हो जाती है कि मुक्ति के मार्ग में आनेवाली निर्जराभावना या निर्जरातत्त्व की चर्चा का सम्बन्ध स्वसमय में उदय में आकर स्वयं खिर जानेवाले कर्मों से होनेवाली सविपाकनिर्जरा से कदापि नहीं है; अपितु संवरपूर्वक शुद्धोपयोग से होनेवाली अविपाकनिर्जरा से ही है। सविपाकनिर्जरा तो ज्ञानी-अज्ञानी सभी के सदाकाल हुआ ही करती है, पर अविपाकनिर्जरा ज्ञानी के ही होती है। क्योंकि निर्जराभावना और निर्जरातत्त्व ज्ञानी के ही प्रकट होते हैं, अज्ञानी के नहीं। निर्जराभावना संबंधी उपलब्ध समग्र चिन्तन में इस बात का उल्लेख भरपूर हुआ है। जैसा कि निम्नांकित उद्धरणों से स्पष्ट है - "निजकाल पाय विधि झरना, तासों निज काज न सरना । तप करि जो कर्म खिपावै, सो ही शिवसुख दरसावे ॥ समय आने पर जो कर्म झरते हैं, उनसे आत्महित का कार्य सिद्ध नहीं होता; तपश्चर्या द्वारा कर्मों का जो क्षय किया जाता है, उससे ही मोक्षसुख की प्राप्ति होती है। तपबल पूर्व कर्म खिर जाँहि, नये ज्ञानबल आवै नाहिं । यही निर्जरा सुखदातार, भवकारण तारण निरधार ॥ १. पण्डित दौलतरामजी : छहढाला; पंचम ढाल, छन्द ११ २. कविवर भूधरदासजी कृत पावपुराण
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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