SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 139
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बारह भावना : एक अनुशीलन निर्जराभावना के स्वरूप और प्रकारों की चर्चा आचार्य कुन्दकुन्द द्वादशानुप्रेक्षा में इसप्रकार करते हैं - १३१ "बंधपदेसग्गलणं णिज्जरणं इदि जिणेहिं पण्णत्तं । जेण हवे संवरणं तेण दु णिज्जरणमिदि जाणे ॥ ६६ ॥ सा पुण दुविहा णेया सकालपक्का तवेण कयमाणा । चदुगदियाणं पढ़मा वयजुत्ताणं हवे विदिया ॥ ६७ ॥ कर्मबंध के प्रदेशों का गलना निर्जरा है और जिन कारणों से संवर होता है, उन्हीं से निर्जरा होती है - ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है । वह निर्जरा दो प्रकार की होती है। प्रथम तो स्वसमय में होनेवाली सविपाकनिर्जरा और दूसरी तप के द्वारा निष्पन्न होनेवाली अविपाकनिर्जरा । पहली सविपाकनिर्जरा चतुर्गति के सभी जीवों के होती है और दूसरी अविपाकनिर्जरा सम्यग्ज्ञानी व्रतधारियों को ही होती है।" उक्त कथन में सविपाक और अविपाक निर्जरावाली बात तो पूर्ववत् ही है, पर एक बात नई कही गई है कि जो कारण संवर के कहे गये हैं, निर्जरा भी उन्हीं कारणों से होती है। अतः उन कारणों पर संवरभावना में जिसप्रकार का चिन्तन किया जाता है, उसीप्रकार का चिन्तन निर्जरा- भावना के चिन्तन में भी अपेक्षित है। निर्जरा के कारणों में संवर के कारणों के अतिरिक्त बारह प्रकार के तप को विशेषरूप से गिनाया गया है, तत्त्वार्थसूत्र के 'तपसा निर्जरा च' सूत्र में भी यही बात परिलक्षित होती है । उपलब्ध बारह भावनाओं में विशेषरूप से तप की चर्चा है; गुप्ति, समिति आदि संवर के कारणों की चर्चा नगण्य सी ही है। इसका एकमात्र कारण सीमित स्थान और पुनरावृत्ति से बचाव की प्रवृत्ति ही प्रतीत होता है। संवरभावना में चर्चा हो जाने के तत्काल बाद उनकी दुबारा चर्चा करना किसी को भी उचित प्रतीत नहीं हुआ। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में निर्जरा के कारणों की चर्चा इसप्रकार की गई है -
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy