SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 111
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बारहभावना : एक अनुशीलन १०३ इसप्रकार हम देखते हैं कि अनित्यादि छह भावनाओं के चिन्तन की विषयवस्तु शरीरादि संयोग हैं और आस्रवभावना के चिन्तन की विषयवस्तु संयोगीभाव हैं। परसंयोग से या पर के लक्ष्य से आत्मा में उत्पन्न होनेवाले मोह-रागद्वेषरूप आस्रवभाव ही संयोगीभाव हैं, विभाव हैं और वे आत्मस्वभाव से विपरीत हैं। उनकी इस विपरीतता को ही समयसार और आत्मख्याति के उक्त कथनों में अनेक हेतुओं से सोदाहरण समझाया गया है। आस्रवभावों की विपरीतता भी तो आत्मस्वभाव से ही सिद्ध करना है; अतः जिन बिन्दुओं से आस्रव का स्वरूप स्पष्ट करते हैं, साथ में उन्हीं बिन्दुओं से आत्मस्वभाव का स्पष्टीकरण भी सहज आवश्यक हो जाता है; अतः कहा जाता है कि आत्मा नित्य है, आस्रव अनित्य हैं; आत्मा ध्रुव है, आस्रव अध्रुव हैं; आत्मा परमशरण है, आस्रव अशरण हैं; आत्मा चेतन है, आस्रव जड़ हैं;आत्मा सुखस्वरूप है, आस्रव दुःखस्वरूप हैं; आत्मा सुख का कारण है, आस्रव दुःख के कारण हैं। __ इसप्रकार यद्यपि ये आस्रवभाव आत्मा में ही उत्पन्न होते हैं, आत्मा से निबद्ध हैं ; तथापि आत्मस्वभाव से अन्य हैं, विपरीतस्वभाववाले हैं; अतः हेय हैं; श्रद्धेय नहीं, ध्येय नहीं, उपादेय भी नहीं, मात्र ज्ञान के ज्ञेय हैं; और आस्रवभावों से अन्य यह भगवान आत्मा परमज्ञेय है, परमश्रद्धेय है, परमध्येय है,परम-उपादेय है। - इसप्रकार का सतत् चिंतन ही आस्रवभावना है। मात्र आस्रव के कारणों का, भेद-प्रभेदों का विचार करते रहना आस्रवभावना नहीं है। आस्रवभावना में आस्रवों के स्वरूप के साथ-साथ जिस आत्मा की पर्याय में ये मोह-राग-द्वेषरूप आस्रवभाव उत्पन्न होते हैं, फिर भी जो आत्मा इन मोह-राग-द्वेष भावों से भिन्न है, परमपवित्र है, ध्रुव है; उस आत्मा का भी विचार होता है, चिंतन होता है। उसके साथ-साथ आस्रवभावों का भी चिन्तन इसप्रकार होता है कि जिससे आस्रवभावों से विरक्ति एवं
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy