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________________ १०४ आस्रवभावना : एक अनुशीलन आत्मस्वभाव में अनुरक्ति उत्पन्न हो; क्योंकि आस्रवभावना के चिंतन का उद्देश्य आस्रवों का निरोध है, आस्रवभाव का अभाव करना है, उन्हें जड़मूल से उखाड़ फेंकना है। ___ आस्रवभावों को जड़मूल से उखाड़ फेंकने के लिए यह आवश्यक है कि हम सम्पूर्ण आस्रवों को हेय जानें, सम्पूर्णतः हेय मानें; चाहे वे पापास्रव हों, चाहे पुण्यात्रव; चाहे अशुभास्रव हों, चाहे शुभास्त्रव। शुभ से शुभ आस्रव के प्रति मोह (उपादेयबुद्धि) मिथ्यात्व नामक अशुभतम आस्रव है। तीर्थंकर नामकर्म का बंध करनेवाले शुभतम भावों में भी यदि उपादेयबुद्धि रहती है तो वह अनन्तसंसार का कारणरूप मिथ्यात्व नामक अशुभतम आस्रवभाव है। ___ इस सन्दर्भ में आध्यात्मिकसत्पुरुष श्रीकानजी स्वामी के विचार भी द्रष्टव्य ___ "हाड़, मांस, चमड़ा आदिमय शरीर अशुचि है - यह बात तो दूर ही रही तथा पापभाव अशुचि हैं, अपवित्र हैं-यह भी सभी कहते हैं; पर यहाँ तो यह कहते हैं कि दया, दान, व्रत आदिरूप जो पुण्यभाव हैं; वे भी अशुचि हैं, अपवित्र हैं । आहाहा! जिस भाव से तीर्थंकर नामकर्म बँधता है, वह भाव भी मलिन है - ऐसा यहाँ कहते हैं। यह बात शुभभावों में धर्म माननेवाले अज्ञानियों को कठिन लगती है, अटपटी लगती है, बुरी लगती है; परन्तु स्वरूप के रसिक-आस्वादी ज्ञानी पुरुष तो शुभभावों को-पुण्यभावों को मलिन ही जानते हैं, इसकारण हेय मानते हैं। राग की चाहे जितनी मन्दता का शुभपरिणाम क्यों न हो, तथापि वह मैल है, अशुचि है, जहररूप है। शास्त्र में पुण्यभाव को किसी जगह व्यवहार से अमृतरूप भी कहा है, तथापि वह वास्तव में तो जहर ही है। अमृत का सागर तो एकमात्र भगवान आत्मा है-जिनको अन्दर में ऐसा भान हुआ हो, स्वाद आया हो; उन धर्मी जीवों को आत्मा के भानपूर्वक जो राग की मन्दता का परिणाम होता है, उस आत्मभान का आरोप करके साथ में होनेवाले शुभराग को व्यवहार से अमृत कह दिया गया है; तथापि निश्चय से तो जहर ही है, अशुचि है, अपवित्र है।" १. प्रवचनरत्नाकर भाग ३, पृष्ठ ५६
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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