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________________ १०२ आस्रवभावना : एक अनुशीलन राग-द्वेष उत्पन्न होते ही रहते हैं। उक्त राग-द्वेष और विकल्पतरंगों के शमन के लिए ज्ञानीजनों को एवं आस्रवभावों से एकत्व-ममत्व तोड़ने के लिए अज्ञानीजनों को भी आस्रवभावों की अध्रुवता, अनित्यता, अशरणता, अशुचिता, जड़ता, दुःखरूपता एवं दुःखकारणता तथा आत्मा की ध्रुवता, नित्यता, शरणभूतता, चेतनता, पवित्रता, सुखरूपता एवं सुख के कारणरूपता का विचार-चिन्तन-मनन निरन्तर करते रहना चाहिए। मोह-राग-द्वेषरूप भाव आस्रवतत्त्व हैं और उनके संदर्भ में निरन्तर किया जानेवाला उक्त चिन्तन आस्रवभावना है। ध्यान रहे आत्रवभावना आस्त्रवतत्त्व नहीं, संवरतत्त्व है; क्योंकि तत्त्वार्थसूत्र में बारहभावनाओं का वर्णन संवरतत्त्व के प्रकरण में आता है। वहाँ अनुप्रेक्षाओं को संवर के कारणों में गिनाया गया है। तत्त्वार्थसूत्र में उक्त कथन मूलतः इसप्रकार है - "आस्रवनिरोधः संवरः। स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रैः। आस्रव के निरोध को संवर कहते हैं। वह संवर तीन गुप्ति, पाँच समिति, दश धर्म, बारह भावना, बाईस परीषहजय और पाँच प्रकार के चारित्र से होता है।" बारह भावनाओं के चिन्तन का मूल प्रयोजन पर और विकार से भिन्न निज भगवान आत्मा में ही रमणता की तीव्र रुचि उत्पन्न करना है, तत्संबंधी पुरुषार्थ को विशेष जागृत करना है। इसी प्रयोजन की सिद्धि के लिए अनित्य से लेकर अशुचिभावना तक संयोगों की अनित्यता, अशरणता, असारता, भिन्नता, अशुचिता का चिन्तन किया जाता है; इस बात का विचार किया जाता है कि ये संयोग मात्र संयोग हैं, आत्मा के सुख-दुःख में साथ देनेवाले नहीं हैं। ___ चूँकि संयोग पररूप ही होते हैं; अत: उक्त छह भावनाओं में विशेष कर पर की पृथकता का ही वैराग्यपरक चिन्तन होता है; किन्तु आस्रवभावना में विभाव की विपरीतता का चिन्तन मुख्य होता है। १, तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ९, सूत्र १ व २
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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