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________________ बारहभावना : एक अनुशीलन १०१ मृगी के वेग की भाँति घटते-बढ़ते होने से आस्रव अध्रुव हैं, पर चैतन्यमात्र जीव ध्रुव है। शीत-दाह ज्वर के आवेश की भाँति अनुक्रम से उत्पन्न होने के कारण आस्रवभाव अनित्य हैं और विज्ञानघनस्वभावी जीव नित्य है। जिसप्रकार वीर्यस्खलन के साथ दारुण कामसंस्कार नष्ट हो जाता है, किसी से रोका नहीं जा सकता; उसीप्रकार कर्मोदय समाप्त होने के साथ ही आस्रव नाश को प्राप्त हो जाते हैं, उन्हें रोकना संभव नहीं है; अत: आस्रव अशरण हैं; किन्तु स्वयंरचित चित्शक्तिरूप जीव शरण सहित है। । आकुलस्वभाववाले होने से आस्रव दुःखरूप है और निराकुलस्वभाववाला होने से आत्मा सुखरूप है। भविष्य में आकुलता उत्पन्न करनेवाले पुद्गलपरिणाम (कर्मबंध) के हेतु होने से आस्रव दुःखफलरूप हैं और समस्त पुद्गलपरिणाम का अहेतु होने से आत्मा सुखफलरूप हैं।" समयसार और आत्मख्याति के उक्त कथन में जहाँ एक ओर आस्रवभावों को अध्रुव, अनित्य, अशरण, अशुचि, जड़, दुःखरूप एवं दु:ख के कारण बताया गया है तो दूसरी ओर भगवान आत्मा को ध्रुव, नित्य, परमशरणभूत, परमपवित्र, चेतन, सुखस्वरूप एवं सुख का कारण बताया गया है। उक्त सम्पूर्ण कथन का एकमात्र उद्देश्य 'आस्रवभाव - मोह-राग-द्वेषरूप विकारीभाव हेय हैं और संयोग तथा संयोगीभावों से भिन्न भगवान आत्मा परम-उपादेय है' - यह बताना है। ___ 'मोह-राग-द्वेषरूप आस्रवभाव आत्मा के स्वभावभाव नहीं; विभाव हैं, संयोगीभाव हैं। भगवान आत्मा उनसे भिन्न ज्ञानानन्दस्वभावी है।' - यह बात बुद्धि के स्तर पर ख्याल में आ जाने पर अज्ञानीजनों का मिथ्यात्व से ग्रस्त चित्त इस तथ्य को स्वीकार नहीं कर पाता; फलतः मोह-राग-द्वेषरूप आत्रवभावों से उनका एकत्व-ममत्व बना ही रहता है। यद्यपि ज्ञानीजनों का एकत्व-ममत्व मोह-राग-द्वेषरूप भावों से नहीं होता; तथापि तज्जन्य विकल्पतरंगें उनके भी भूमिकानुसार उठा ही करती हैं, १. समयसार गाथा ७४ की टीका (हिन्दी अनुवाद)
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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