SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आस्त्रवभावना : एक अनुशीलन इस संदर्भ में आचार्य कुन्दकुन्द का निम्नांकित कथन द्रष्टव्य है - "णादूण आसवाणं असुचित्तं च विवरीयभावं च । दुक्खस्स कारणं ति य तदो णियत्तिं कुणदि जीवो ॥ जीवणिबद्धा एदे अधुव अणिच्चा तहा असरणा य । दुक्खा दुक्खफलं त्ति य णादूण णिवत्तदे तेहिं ॥ आस्रवों की अशुचिता, विपरीतता एवं दुःखकारणता जानकर जीव उनसे निवृत्ति करता है । १०० जीव से निबद्ध ये आस्रव अध्रुव हैं, अनित्य हैं, अशरण हैं, दुःखरूप हैं और दुःखरूप ही फलते हैं यह जानकर ज्ञानी उनसे निवृत्त होता है। " उक्त कथन को सोदाहरण स्पष्ट करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र' आत्मख्याति' में लिखते हैं - "जिसप्रकार जल में सेवाल (काई) जल के मैल के रूप में उपलब्ध होता है, उसीप्रकार आस्रवभाव भी आत्मा में मैल के रूप में ही उपलब्ध होते हैं; इसलिए वे अशुचि हैं, अपवित्र हैं। तथा भगवान आत्मा सदा ही अत्यन्त निर्मल चैतन्यमात्र भाव से उपलब्ध होता है; अतः अत्यन्त शुचि है, परमपवित्र है । जड़स्वभाववाले होने से आस्रवभाव दूसरों के द्वारा जाने जाते हैं; अत: वे चैतन्य ( आत्मा ) से अन्यस्वभाववाले हैं और भगवान आत्मा सदा ही विज्ञानघनस्वभाववाला होने से स्वयं को जानता है; अतः चैतन्य से अनन्य है । आकुलता उत्पन्न करनेवाले होने से आस्रव दुःख के कारण हैं और भगवान आत्मा निराकुलस्वभावी होने के कारण न तो किसी का कार्य है और न किसी का कारण है; अतः दुःख का अकारण ही है। वृक्ष और लाख की भाँति वध्य घातकस्वभाववाले होने से जीव के साथ निबद्ध होने पर भी अविरुद्धस्वभाव का अभाव होने से आस्रवभाव जीव नहीं हैं। १. समयसार गाथा ७२ व ७४ २. समयसार गाथा ७२ की टीका (हिन्दी अनुवाद)
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy