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________________ 153 धूम क्रमबद्धपर्याय की अपने में अपनापन ही धर्म है और पर में अपनापन ही अधर्म है, इसलिए ज्ञानी धर्मात्मा निरन्तर इसप्रकार की भावना भाते रहते हैं कि - मैं एक दर्शन-ज्ञानमय नित शुद्ध हूँ रूपी नहीं । ये अन्य सब परद्रव्य किचित् मात्र भी मेरे नहीं ॥ मोहादि मेरे कुछ नहीं मैं एक हूँ उपयोगमय । है मोह-निर्ममता यही वे कहें जो जाने समय ॥ धर्मादि मेरे कुछ नहीं मैं एक हूँ उपयोगमय । है धर्म निर्ममता यही वे कहें जो जाने समय ॥ धर्मादि परद्रव्यों एवं मोहादि विकारी भावों में से अपनापन छोड़कर उपयोगस्वरूपी शुद्ध निज भगवान आत्मा में अपनेपन की दृढ़ भावना ही धर्म है, अनन्त अतीन्द्रिय आनन्द की प्राप्ति का मार्ग है; अतः निज भगवान आत्मा को जानने पहिचानने का यत्न करना चाहिए और निज भगवान आत्मा को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए । प्रश्न - हम तो बहुत प्रयत्न करते हैं, पर वह भगवान आत्मा हमें प्राप्त क्यों नहीं होता ? उत्तर - भगवान आत्मा की प्राप्ति के लिए जैसा और जितना प्रयत्न करना चाहिए, यदि वैसा और उतना प्रयत्न करें तो भगवान आत्मा की प्राप्ति अवश्य ही होती है । सच्ची बात तो यह है कि भगवान आत्मा की प्राप्ति की जैसी तड़फ पैदा होनी चाहिए, अभी हमें वैसी तड़फ ही पैदा नहीं हुई है । यदि अन्तर की गहराई से वैसी तड़फ पैदा हो जावे तो फिर भगवान आत्मा की प्राप्ति में देर ही न लगे । भगवान आत्मा की प्राप्ति की तड़फ वाले व्यक्ति की स्थिति कैसी होती है ?- इसे हम उस बालक के उदाहरण से अच्छी तरह समझ सकते १. शुद्धात्मशतक गाथा ३९-४१.
SR No.009440
Book TitleAatma hi hai Sharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages239
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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