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________________ आत्मा ही है शरण 152 की प्राप्ति होती है । अतः हे भव्यजीवो । परद्रव्यों से विरक्त होकर निज द्रव्य में रति करो । प्रश्न – गत वर्ष कुन्दकुन्द शतक की गाथाओं पर प्रवचन करते हुए आपने यह समझाया था कि एक द्रव्य दूसरे के सुख-दुःख और जीवन-मरण का उत्तरदायी नहीं है; क्योंकि प्रत्येक आत्मा स्वोपार्जित कर्मों के उदय के निमित्त से अपनी योग्यतानुसार ही सुखी-दुःखी होते हैं और जीवन-मरण को प्राप्त होते हैं । अब यह बता रहे हैं कि परद्रव्य से दुर्गति और स्वद्रव्य से सुगति होती है। जब परद्रव्य हमारे दुःख-सुख और जीवन-मरण का उत्तरदायी नहीं है तो वह हमारी दुर्गति का कारण भी कैसे हो सकता है ? उत्तर – भाई, 'परद्रव्य से हो दुर्गति' का आशय यह नहीं है कि परद्रव्य हमारी दुर्गति करता है; अपितु यह है कि जो आत्मा निज द्रव्यरूप त्रिकाली ध्रुव निज भगवान आत्मा से भिन्न किसी भी पर पदार्थ में अपनापन स्थापित करता है, उसे ही निज जानता है, निज मानता है और उसी में रत रहता है; वह दुर्गति को प्राप्त होता, अनन्त दुःखी होता है, चार गति और चौरासी लाख योनियों में भटकता है । पर और पर्याय से भिन्न स्वद्रव्य अर्थात् निज भगवान आत्मा में अपनापन स्थापित करने से, उसे ही निज जानने-मानने से; उसमें ही लीन रहने से सुगति की प्राप्ति होती है, पंचम गति की प्राप्ति होती है, अतीन्द्रिय आनन्द की प्राप्ति होती है । सुखी होना ही सुगति है और दुःखी होना ही दुर्गति है । निज भगवान आत्मा के आश्रय से जीव सुखी होते हैं और निज भगवान आत्मा से भिन्न परपदार्थों के आश्रय से जीव दुःखी होते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि स्वद्रव्य से सुगति और परद्रव्य से दुर्गति होती है । 'निज भगवान आत्मा के आश्रय से' - इसमें आश्रय का आशय निज भगवान आत्मा को निज जानना, निज मानना और निज में ही जमना रमना है । इसीप्रकार 'परद्रव्य के आश्रय' में आश्रय का आशय पर को निज जानने मानने और उसी में जमने रमने से हैं ।
SR No.009440
Book TitleAatma hi hai Sharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages239
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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