SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 157
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 151 धूम क्रमबद्धपर्याय की णाणमय अप्पाण उवलद्धं जेण झडियकम्मेण । चइऊण य परदव्वं णमो णमो तस्स देवस्स ॥१॥ परदव्वरओ बज्झदि विरओ मुच्चेइ विविहकम्मेहिं । एसो जिण-उवदेसो समासदो बंधमुक्खस्स ॥२॥ परदव्वादो दुग्गई सद्दव्वादो हु सुग्गई होई । इय णाऊण सद्दव्वे कुणह ई विरह इयरम्मि ॥३॥ इन गाथाओं का हिन्दी पद्यानुवाद इसप्रकार है : परद्रव्य को परित्याग पाया ज्ञानमय निज आतमा । शतबार उनको हो नमन निष्कर्म जो परमातमा ॥१॥ परद्रव्य में रत बंधे और विरक्त शिवरमणी वरे । जिनदेव का उपदेश बंध-अबंध का संक्षेप में ॥२॥ परद्रव्य से हो दुर्गती निजद्रव्य से होती सुगति । यह जानकर रति करो निज में अर करो पर से विरति ॥३॥ ये गाथाएँ मूलतः मोक्षपाहुड की हैं । भेदविज्ञान मूलक इन गाथाओं __ में सम्पूर्ण जगत को स्वद्रव्य और परद्रव्य के रूप में विभाजित किया गया है। ज्ञानमय निज भगवान आत्मा को स्वद्रव्य और उसके अतिरिक्त सम्पूर्ण जगत को परद्रव्य कहा गया है । यह भी स्पष्ट किया गया है कि परद्रव्यों का परित्याग एवं ज्ञानमय निज भगवान आत्मा की आराधना करके ही परमात्मा बना जा सकता है । आज तक जो भी आत्मा परमात्मा बने हैं, वे सभी इसी विधि से बने हैं और भविष्य में भी जो परमात्मा बनेंगे, वे भी इसी विधि से बनेंगे । बंध और मोक्ष के संबंध में जिनेन्द्र भगवान के उपदेश का सार बताते हुए कहा गया है कि परद्रव्य में रत (लीन) आत्मा ही बंध को प्राप्त होते हैं और परद्रव्यों से विरत (विरक्त) आत्मा ही मोक्ष को प्राप्त करते हैं । अन्त में कहा गया है कि अधिक क्या कहें, मात्र इतना ही समझलो कि परद्रव्य के आश्रय से दुर्गति होती है और स्वद्रव्य के आश्रय से सुगति
SR No.009440
Book TitleAatma hi hai Sharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages239
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy