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________________ वहु पुण्य-पुंज प्रसंग से, शुभदेह मानव का मिला। तो भी अरे भव चक्र का, फेरा न एक कभी टला || सुख प्राप्त हेतु प्रयत्न करते, सुख जाता दूर है। तू क्यों भयंकर भावमरण, प्रवाह में चकचूर है || हे भव्यजीव! यह मनुष्यपना, श्रावक का उत्तम कुल और वीतरागी जिनवाणी का श्रवण तुझे महाभाग्य से मिला है, ऐसा सुयोग तो चिन्तामणि रत्न के मिलने जैसा है, उसे तू व्यर्थ मत गँवा | वर्तमान में अनन्त काल के दुःख से छूटकर सुख की प्राप्ति करने का यह अवसर है, अतः अब तू संसार की झंझटों में, लोगों को प्रसन्न करने में, मत रुक, किन्तु सम्यग्ज्ञान प्राप्त करके अपना हित कर ले | ___अरे! प्रति समय आयु रूपी तेल क्रमशः कम होता जा रहा है और धीरे-धीरे जीवन दीप बुझ रहा है। आदमी समझता है, मैं बड़ा हो रहा हूँ, पर गौर से देखो तो नरभव व्यर्थ ही चला जा रहा है | बीता हुआ समय कभी वापिस नहीं आता। जो समय हाथ में है, वह भी अगले क्षण रहने वाला नहीं। जिन पदार्थों के जानने से कोई लाभ नहीं, उनको जानने का प्रयत्न बहूमूल्य समय की बर्बादी है। अतः विषय-कषाय से विरक्त होकर, सम्यग्ज्ञान को प्राप्त करने का पुरुषार्थ करो। "सम्यग्ज्ञान' काम रूपी सर्प को कीलने के लिये मंत्र के समान है, मन रूपी हाथी को वश में करने के लिय सिंह के समान है, कष्ट रूपी मेघों को उड़ाने के लिये पवन के समान है, विषय रूपी मछलियों को पकड़ने के लिये जाल के समान है, और सर्व तत्त्वों को प्रकाशमान करने के लिये दीपक के समान है। ज्ञानोपयोग बिना आत्मा का कल्याण नहीं। अतः हमें क्रम से स्वाध्याय में प्रगति अवश्य करना चाहिये । स्व का जहाँ अध्ययन हो, (688)
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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