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________________ वही स्वाध्याय है। संसार में अज्ञान दुःख का कारण है और एक मात्र सम्यग्ज्ञान सुख की खान है। सभी को जिनवाणी का स्वाध्याय अवश्य करना चाहिये। जिनवाणी मोक्षमार्ग में साक्षात माता के समान है | जिस प्रकार माँ पाल पोस कर पुत्र को सक्षम और सामर्थ्यवान बनाती है, उसी प्रकार जिनवाणी माँ हमें अनादिकाल के अज्ञानरूपी अंधकार से निकालकर, मोक्षरूपी प्रकाश भवन में बैठा देती है | ज्ञान आत्मा का सबसे अधिक मूल्यवान गुण है, ज्ञान के कारण आत्मा चेतन कहलाता है, ज्ञान के कारण ही इसका अपनी उन्नति का मार्ग सूझता है | इस ज्ञान का आत्मा में अक्षय भंडार भरा हुआ है, ज्ञान का कहीं बाहर से नहीं लाना पड़ता। वह ज्ञान भंडार ज्ञानावरण कर्म के परदे से छिपा हुआ है, सतत् ज्ञानाभ्यास करत रहने से ज्ञानावरण कर्म दूर हो सकता है, अतः सभी को जिनवाणी का स्वाध्याय कर, ज्ञानप्राप्ति का प्रयत्न अवश्य करत रहना चाहिये ।। जीव ने बाह्य में अपना चित्त चंचल किया, अपना उपयोग रमाया, उसकी चर्चायें की, और उनकी उन्नति और भलाई के बारे में सोचा-विचारा, पर कभी अपन आपका स्वाध्याय न किया, अपन आप पर दृष्टि न डाली। दूसरे को तो हम शिक्षा देने चल, पर स्वयं को ही भूल गये । हमने स्वयं अपनी कभी चिन्ता न की। न ये पदार्थ, जिनकी तुम चिन्ता कर रह हो, साथ में आय हैं, न ये वर्तमान में तुम्हारे हैं और न अन्त में साथ जायेंगे | उनका संयोग मिथ्यात्वजनित कल्पना हाने से दुःख का कारण है। इनमें हितबुद्धि छोड़ो। आत्मा स्वयं में सुखी/निर्विकार है, उसका चिंतन-मनन करो। यदि ऐसा नरभव पाकर आत्मा का कल्याण न किया, तो फिर कब कल्याण करोगे? तिर्यंच गति में ज्ञान कहाँ? वहाँ आत्मा की पहचान होना कठिन है। नरक में तो मारकाट से ही समय नहीं मिलता। वहाँ पर 689)
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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