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________________ राजा की बात सुनकर मुनिराज ने कहा- राजन्! मेरा अन्तःकरण खेती है, विवक मेरा हल है, संयम और वैराग्य दो बैल हैं, मैं सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के बीज बोता हूँ, ध्यान के नीर से सींचता हूँ | समता के खुरपे स ममता, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि घास को उखाड़ कर फेक देता हूँ (जो मेरी रत्नत्रय रूपी खेती के लिये घातक हैं)। पाँच महाव्रत क गोफन में, पाँच समिति रूपी पत्थर से, पाँच इन्द्रिय रूपी मृगों के समूह को भगाता हूँ, जो मेरी खेती को नष्ट करते हैं | मरी इस खेती में अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्त वीर्य-रूपी अनाज उत्पन्न होता है, जिससे मैं चिरकाल के दुःख दारिद्रय का नाश कर, अविनाशी सुख का भोक्ता बनूँगा। हे राजन्! संसारी प्राणी विषय वासनाओं की पूर्ति के लिये अनेक प्रकार के पुरुषार्थ करता है, दिन-रात आकुल व्याकुल रहता है, परंतु इसको सुख-शान्ति की प्राप्ति नहीं होती। सुखी होने का उपाय धन संचय करना नहीं, सम्यग्ज्ञान प्राप्त करना है। अतः आत्मकल्याण चाहने वालों को ज्ञानार्जन करने का पुरुषार्थ करना चहिये | आचार्य समझाते हैं, हे जीव! तू बाहर में दस पाँच लाख रुपया प्राप्त करने के लिए कितना परिश्रम करता है। घर-बार छोड़कर, खाने-पीने की कठिनाई सहन करके भी परदेश में पैसा कमाने जाता है और दिन-रात मजदूरी करता है। तुझे ज्ञान की कीमत का पता नहीं है | सम्यग्ज्ञान अचिन्त्य शक्ति वाला है, परम शान्ति वाला है | तेरी सच्ची लक्ष्मी तो यह सम्यग्ज्ञान है, जो परम सुख देने वाला है, अन्य पैसा आदि तो धूल-रजकण हैं, वह कहीं तेरी लक्ष्मी नहीं और उनमें से कभी तुझे सुख मिलने वाला भी नहीं है। अतः सम्यग्ज्ञान को प्राप्त करने का ही प्रयास करो । श्रीमद् राजचन्द्र जी ने लिखा है - 687)
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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