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________________ दिया है। किन्तु एक ही शब्द में उन्होंने कह दिया समय और उसका सार | इसके शीर्षक के माध्यम से ही सारा काम हो जाता है। शुद्ध आत्मा का सार-आत्मा के सार को ही “समयसार' कहा है। उस ब्रह्मस्वरूप आत्मा में लीन होने पर जो सुख होता है, वह इन्द्र, अहमिन्द्र को भी नहीं होता। यो चिन्त्य निज में थिर भये, तिन अकथ जो आनन्द लह्यो । सो इन्द्र नाग नरेन्द्र वा, अहमिन्द्र के नाहीं कह्यो ।। स्वात्मानुभूति का संवेदन, आत्मा का जो स्वाद है, वह स्वाद स्वर्ग के देवों के लिय भी दुर्लभ है और वहाँ के इन्द्र के लिये भी दुर्लभ है | कहीं भी चले जाओ, सबके लिये दुर्लभ है | उसी के लिये (मनुष्य के लिये) वह साध्यभूत है, संभव है, जिन्होंने अपने आपके संस्कारों को मार्जित कर लिया है, अर्थात् राग-द्वेष के संस्कार जिनके बिल्कुल नहीं हैं, जिनकी अनुभूति में वीतरागता उतर गई है, उसका नाम है स्वसंवेदन उसका नाम है आत्मानुभूति, उसका नाम है ब्रह्मचर्य। आत्मा ही ब्रह्म है। उस ब्रह्मस्वरूप आत्मा में चर्या करना, सो ब्रह्मचर्य है | इस ब्रह्मचर्य के लिये इन्द्रिय-विषयों का त्याग करना अनिवार्य है। जहाँ इन्द्रिय-विषयों की वासना व कषायां की शान्ति नहीं हुई, वहाँ ब्रह्मचर्य जन्म नहीं ले सकता। ब्रह्मचर्य का पालन करने के लिये विषय-कषायों से दूर रहना चाहिये | ब्रह्मचर्य धर्म तो मन की पवित्रता का धर्म है। जिनका मन पवित्र हो जाता है, उनसे ब्रह्मचर्य व्रत सहज रूप से पल जाता हैं | एक बार एक युवा और वृद्ध भिक्षु नदी के किनारे से जा रहे थे। उसी समय अचानक एक लड़की नदी में गिर गई, तो उस युवा भिक्षु (638
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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