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________________ बताइये | साधु जी बोले- बताऊँगा । अभी तुम ध्यान करो। वह बोला- महाराज! मुझे तो संसार छोड़ना है और आप कह रहे हैं ध्यान करो? साधु जी बोले- हाँ, तुम भैंसे का ध्यान करो । गुरुजी के कहने से वह युवक कमरे में बैठकर भैंसे का ध्यान करने लगता है। तीन दिन ध्यान करने के बाद कमरे में से आवाज आई - 'बचाओ- बचाओ' गुरुजी ने जाकर देखा युवक ध्यान कर रहा है | गुरुजी बोले- क्या हो गया है? कमरे से बाहर आ जाओ। उसने कहा- इस दरवाजे में से मैं कैसे निकल पाऊँगा? मेरे इतने बड़े-बड़े तो सींग हैं। वह भैंस का ध्यान करते-करते अपने को भैंसा ही समझने लगा था। जब गुरुजी ने उसे हिलाया - डुलाया, अरे ! तुम तो मनुष्य ( युवक ) हो, भैंसा थोड़े ही हो, तो वह समझ गया और कमरे से बाहर आ गया । इसी प्रकार हम लोगों को जीवन-भर परपदार्थों को अपना मानने से ऐसा लगने लगा है कि यह मेरा है, यह मेरा है, पर वास्तव में यहाँ किसी का कुछ भी नहीं है । जब सच्चा ज्ञान हो जाता है, तो सब कुछ स्वयं छूट जाता है, कुछ छोड़ना नहीं पड़ता । मेरा अन्य पदार्थों के साथ क्या सम्बंध है? बाह्य पदार्थों में जितना समय लगा रखा है, वह सब पागलपन है । कौन-सी ऐसी वस्तु है, कौन - सा ऐसा काम है, जो ज्ञान मात्र आत्मा को पूरा पाड़ देगा? ऐसा जगत में कुछ नहीं है, फिर भी इस संसारी प्राणी को काम करने का रोग लगा है। मुझे अमुक काम करने को पड़ा है, इस प्रकार का जो परिणाम है, वही महारोग है । क्या पड़ा है करने को ? इस ज्ञान - मात्र आत्मा में सिवाय जानने के अन्य कुछ करने की सामर्थ्य ही नहीं है, फिर बाहर में कौन-सा काम करने को पड़ा है ? 473
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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