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________________ भगवान महावीर स्वामी का जीव सिंह की पर्याय में था । अमितगति और अमित तज मुनिराज ने आकाश मार्ग से गुजरते हुये नीचे देखा-एक सिंह ने हिरण को दबोच रखा है | वे मुनिराज नीचे उतरकर उस सिंह का सम्बोधन करते हैं और कहते हैं-हे मृगराज ! तू आगामी भव में तीर्थंकर बनकर समस्त विश्व को अहिंसा का सन्देश देने वाला है, छोड़ दे इस दुष्कृत्य को और धार ले अहिंसा व्रत को | बस फिर क्या था? सिंह ने मुँह में दबाये हिरन को छोड़ दिया और धार लिया मुनिराज से जीव रक्षा का व्रत। उसका यह परिणाम निकला कि वही सिंह का जीव दस भव बाद तीर्थंकर भगवान महावीर बना । त्याग ही जीव को भगवान बनाने में सक्षम है। ‘बारस अणुवेक्खा' ग्रंथ में आचार्य कुन्दकुन्द महाराज ने त्याग धर्म की परिभाषा बताते हुये लिखा है - णिव्व-गतियं भावइ मोहं चइऊण सव्वदव्वेसु । जो तस्य हवेचागो इदि भणिदं जिणवरिंदे हिं ।। अर्थात् जो मुनि समस्त परद्रव्यों से मोह छोड़ कर संसार, शरीर और भागों से उदासीन भाव रखता है, उसको त्याग धर्म होता है | 'छहढाला' मे पं. दौलतराम जी ने लिखा है - "मोह महामद पियो अनादि, भूल आपको भरमत वादि ||" इस जीव ने अनादि काल स मोह रूपी मदिरा को पी रखा है, इसलिये यह अपने स्वरूप को भूलकर परपदार्थों को अपना मानकर व्यर्थ ही संसार में भ्रमण कर रहा है। वास्तव में यहाँ किसी का कुछ भी नहीं है। एक युवक साधु जी के पास पहुँचा और बोला-महाराज! मैं संसार छोड़ना चाहता हूँ, पर बहुत मुश्किल लग रहा है। आप कुछ उपाय (472)
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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