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________________ करना पड़ा। ये जो कर्मोदय से प्राप्त होनेवाली सम्पदा है, इसका कोई भरोसा नहीं है। यह मनुष्य की बहुत बड़ी भूल है जो वे समझते हैं कि लक्ष्मी मेरा साथ दे रही है। लक्ष्मी कभी किसी का साथ नहीं देती, वह तो स्वयं पुण्य के पीछे चलती है। जब तक पुण्य रहता है तो उसके पास लक्ष्मी रहती है और जब उसका पुण्य नष्ट हो जाता है ता उसे स्वयं समझ में आ जाता है कि मेरी औकात क्या है, मेरी हैसियत क्या है। पहले करोड़पति थे, अब रोडपती बन गये। तो एसी स्थिति में किसका अभिमान किया जाये? अतः यह धन का, पूजा/ प्रतिष्ठा का अभिमान भी व्यर्थ है, जो हमार लक्ष्य की पूर्ति में बाधक बनकर मात्र लोकेषणा में फँसा दती है। सदा इस लोकेषणा से बचना चाहिय | ये प्रतिष्ठा करनेवाले लोग तो मोही हैं, स्वयं कर्म के पेर हैं। यहाँ तो माया की माया से पहचान हो रही है। ज्ञानी पुरुष ऐसा जानकर इस लौकिक प्रतिष्ठा की भावना को छोड़ देते __ छटवाँ अहंकार है बल का | व्यक्ति थोड़ा-सा शारीरिक बल पा लेता है तो उसे इतना अहंकार हो जाता है जैसे मेरे बराबर कोई है ही नहीं। अरे! इस बल का क्या अहंकार करना। आज शरीर तगड़ा है, पर जोर का मलेरिया आ जाये, चार-छ: लंघन हो जावें, तो सूरत बदल जाये, उठते न बने । रावण को ही देख लो, उसे अपने बल का बड़ा अहंकार था। तीन खंड का स्वामी रावण जब सीता का हरण कर लंका पहुँचा तब मन्दोदरी समझाती है-यह आपने अच्छा नहीं किया, सीता जी को वापिस कर दो। यह सुनकर रावण उत्तर दता है-सीता को युद्ध किये बिना वापिस कर देना मुझे सम्भव नहीं है | पहले मैं राम को जीतकर लक्ष्मण और हनुमान को कैद करक विजय प्राप्त करूँगा, (143)
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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