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________________ अहंकार की अन्तिम परिणति तो सिर्फ इतनी ही होती है कि उसका पुण्य क्षीण हो जाता है। किसी का भी ऐश्वर्य स्थिर नहीं रहता | चक्रवर्तियों का ऐश्वर्य भी साथ नहीं गया, फिर हमारे पास है ही क्या? चक्रवर्ती के चपरासी के बराबर भी हमारे पास नहीं होगा। वह छ: खण्ड के अधिपति चक्रवर्ती और यहाँ हमारा छ: खण्ड का मकान भी नहीं है, फिर भी कितना इतरात हैं। प्रतिष्ठा क मद में व्यक्ति छोटों का तिरस्कार करता है, पर कभी-कभी ऐसा भी होता है कि जिसका आज हम तिरस्कार कर रहे हैं, कुछ समय बाद वह मालिक बन जाता है और तिरस्कार करनेवाले की स्थिति बिगड जाती है। आज मंत्री हैं तो हेलीकोप्टर में चलते हैं और कल चुनाव हार गये तो पुनः रिक्शा पर आना पड़ता है। धन का नशा भी व्यक्ति के ऊपर बहुत अधिक होता है | दौलत के नश में वह अंधा हो जाता है, उसे कुछ दिखता नहीं है | कहा गया है - कनक-कनक तें सौ गुनी, मादकता उपजाये | यह खाये बौराये नर, वो पाये बौ राय | धतूरा को कनक कहते हैं | उसे जो खाता है, वह बौराने लगता है | और जो सोना को थोड़ा पा लेता है तो वह भी बौराने लगता है | गरीबां की ओर नहीं दखता, मस्तक ऊपर उठाकर चलता है | पैसे के मद में भक्ष्य अभक्ष्य का ज्ञान नहीं रहता। पर ध्यान रखना, यह धन स्थिर रहने वाला नहीं है। इसका कोई भरोसा नहीं है, कर्माधीन है, कब हमारे पास से चला जाय | जबलपुर में एक बहुत बड़े व्यापारी थे, जिनके नाम से सैकड़ों ठेले चलते थे। लेकिन उनकी मृत्यु के बाद उनके भाइयों ने सब हड़प लिया और उनके बटे को रोड पर हाथठेला चलाने का काम
SR No.009438
Book TitleRatnatraya Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurendra Varni
PublisherSurendra Varni
Publication Year
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size57 MB
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